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आलोचना क्या, क्यों और कब?...69
साक्षी से अलोचना करने पर विशुद्धि हो जाती है। जैसे कि चेटक महाराजा
और कोणिक के संग्राम में जर्जरित हुए वरुण श्रावक ने गुरु के अभाव में सिद्ध आदि की साक्षी से आलोचना ली और उसी समय आयु पूर्णकर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से एकावतारी होकर मोक्ष जायेगा। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस तरह की शुद्धि करने से क्या होता है? इसके जवाब में जैनाचार्य कहते हैं कि जैसे मजदूर अनाज, लकड़ी, लोहा आदि के भार को माथे या पीठ पर से उतारने के बाद स्वयं को अत्यन्त हलका महसूस करता है इसी तरह आत्मा पर लगे हुये पाप रूपी बोझ भी आलोचना द्वारा दूर होने से आत्मा एकदम हलकी हो जाती है। आलोचना के प्रारम्भिक कृत्य
जैन धर्म की श्वेताम्बर टीकाओं में यह उल्लेख आता है कि आलोचक जिसके समक्ष आलोचना करना चाहता है सर्वप्रथम उन्हें वन्दन करें। उसके बाद यदि पार्श्वस्थ साधु या दीक्षा त्यक्त श्रावक आदि वन्दन करवाने की इच्छा न रखते हों तो उनके लिए आसन बिछाएं और सामान्य प्रणाम करके फिर आलोचना करे। यदि उत्प्रव्रजित वन्दन करवाने की इच्छा रखें तो उसे कुछ अवधि के लिए सामायिकव्रत और रजोहरण आदि लिंग देकर उसके हेतु आसन बिछाएं, फिर कृतिकर्म वन्दन करे। वन्दन की अनिच्छा प्रकट करने पर वचन और काया से प्रणाम मात्र कर आलोचना करनी चाहिए।
इसी तरह सम्यक्त्वी देवता के समीप आलोचना करे। देवता व्रतधारी न होने से उसमें सामायिक का आरोपण और लिंग समर्पण नहीं किया जाता।21 वर्तमान काल में प्राय: आचार्य, गीतार्थ मुनि या वरिष्ठ मुनि के समीप ही आलोचना करते हैं। साधु-साध्वी की पारस्परिक आलोचना-विधि
बृहत्कल्पभाष्य के निर्देशानुसार मुनियों की आलोचना के दो प्रकार हैंएक स्वपक्षीय और दूसरा परपक्षीय। मुनि के द्वारा आचार्य के समीप आलोचना करना स्वपक्षीय आलोचना है। यह आलोचना निर्जन प्रदेश में की जानी चाहिए, ऐसा भाष्यकार का अभिमत है। इसमें आलोचक आचार्य का आसन स्थापित कर बद्धांजलि पूर्वक उत्कुटुक आसन में बैठता है।