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68... प्रायश्चित विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
आशय यह है कि उसका आचार कैसा भी क्यों न हो, उसके पास भी आलोचना की जा सकती है।
यदि समानलिंगी का योग न मिले तो पश्चात्कृत श्रमणोपासक (जो संयम पर्याय को छोड़कर श्रावक धर्म का पालन कर रहा है) के पास आलोचना करे। उक्त श्रमणोपासक के अभाव में सम्यक् भावित चैत्य देखे तो वहाँ आलोचना करे। उसके अभाव में गांव या नगर के बाहर पूर्व या उत्तर की ओर अभिमुख हो मस्तक पर करबद्ध अंजलि रखकर इस प्रकार बोले - " मैंने इतने अपराध किये हैं, इतनी बार अपराध किये हैं" ऐसा उच्चारणकर अर्हत् और सिद्धों की साक्षी से आलोचना करे। दुबारा उन दोषों का सेवन न करने के लिए संकल्पित होकर यथायोग्य तपः कर्म प्रायश्चित्त स्वीकार करे | 17 संक्षेप में कहें तो आचार्य, उपाध्याय, बहुश्रुत साधर्मिक साधु, बहुश्रुत अन्य सांभोगिक साधु, बहुश्रुत समानलिंगी साधु, संयम त्यक्त श्रमणोपासक, सम्यक् भावित चैत्य, अरिहन्त एवं सिद्ध - इस प्रकार क्रमश: एक के अभाव में -दूसरे के पास आलोचना करनी चाहिए । यहाँ 'सम्यक् भावित चैत्य' इस पद में चैत्य का अर्थ- आचार्य मधुकरमुनि ने सम्यग्दृष्टि या समझदार व्यक्ति किया है तदनुसार सम्यक्त्व भावित देवता के पास आलोचना करे | 18
व्यवहारभाष्य में आलोचना करने के सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी प्रस्तुत किया गया है कि- कदाच आलोचित मुनि के द्वारा परित्यक्त दोष का पुनर्सेवन हो जाये तो वह अपने गच्छ के आचार्य के पास तथा उनके अभाव में क्रमश: उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर, गणावच्छेदक के पास आलोचना करे ।
अपने गच्छ में इन पाँचों के न होने पर अन्य सांभोगिक गच्छ में जाकर पूर्वोक्त क्रम से आलोचना करे | 19
ओ नियुक्ति टीका के अनुसार उत्सर्गत: आलोचना आचार्य के पास ही करनी चाहिए। आचार्य का योग न हो तो गीतार्थ मुनि की खोज कर उनके पास आलोचना करे। गीतार्थ आदि के अभाव में सिद्धों की साक्षी से आलोचना करनी चाहिए। 20
उक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि जिनशासन में आचार्य सर्वश्रेष्ठ होते हैं तथा किसी भी स्थिति में आलोचना अपरिहार्य रूप से करनी चाहिए । रोग आदि की स्थिति में भी गुरु महाराज का योग नहीं मिले तो सिद्ध आदि की