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आलोचना क्या, क्यों और कब ?... 81
9. प्रियधर्मा - धर्म से प्रेम रखने वाला हो ।
10. दृढ़धर्मा- आपत्तिकाल में भी स्थिर चित्तवाला हो ।
व्यवहारभाष्य में संघदासगणि ने आलोचना दाता गुरु के 8 लक्षण बतलाये हैं जो स्थानांगसूत्र के अंतिम दो भेदों को छोड़कर शेष 8 समान ही हैं। स्पष्टता के लिए मूल पाठ यह है 34
आलोयणारिहो खलु....
अट्ठहिं चेव गुणेहिं इमेहिं जुत्तो उ नायव्वो,
आयारवं आधारवं, ववहारोव्वीलए पकुव्वी य ।
निज्जवगs वायदंसी, अपरिस्सावी य बोधव्वो ।। व्यवहारभाष्य के अनुसार आलोचना दाता गुरु में निम्नोक्त योग्यताएँ भी आवश्यक हैं 35
गीतत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा । चिर दिक्खिया य वुड्डा, जतीण आलोयणा जोग्गा ।। • गीतार्थ - सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ में निष्णात हो । • कृतकरण - आलोचना में सहायक रह चुका हो ।
• प्रौढ़ - बिना हिचकिचाहट के प्रायश्चित्त देने में समर्थ हो ।
• परिणामी - वह अपरिणामी और अतिपरिणामिक न हो।
• गंभीर - आलोचक के महान दोषों को सुनकर भी उसे पचाने में समर्थ हो।
चिरदीक्षित - तीन वर्ष से अधिक दीक्षा पर्यायवाला हो ।
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• वृद्ध - श्रुत, पर्याय और वय से स्थविर हो ।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचाशकप्रकरण में आलोचना योग्य गुरु के 11 लक्षण बतलाये हैं उनमें आठ गुण स्थानांगसूत्र के समान ही हैं शेष तीन गुण निम्नोक्त हैं 36_
9. परहितोद्यत- परोपकार में तत्पर हो।
10. सूक्ष्म भावकुशलमति - शास्त्रों के सूक्ष्म भावों को जानने में कुशल एवं तीक्ष्ण बुद्धिवाला हो ।
11. भावानुमानवान- दूसरों के चैतसिक भावों को अनुमान से जानकर उन्हें योग्य प्रायश्चित्त देने में समर्थ हो । उक्त गुणों से युक्त गीतार्थ आदि मुनि आलोचना देने योग्य होते हैं।