________________
प्रायश्चित्त दान की उपयोगिता एवं उसके प्रभाव...59 • अन्य लोगों के सम्मुख आलोचना लेने से उनके मन में साधु धर्म के प्रति हीनभाव उत्पन्न हो सकते हैं और उससे जिन धर्म एवं साधु धर्म की हीलना हो सकती है।
• आलोचनाग्राही के मन में यदि लज्जा, भय आदि उत्पन्न हो जाये तो वह पूर्ण आलोचना नहीं कर पाएगा और अधूरी आलोचना का कोई महत्त्व भी नहीं है अत: एकांत में आलोचना का विधान है। वर्तमान में आलोचना के प्रति उपेक्षा क्यों?
आजकल आलोचना के प्रति लापरवाही बरतने के कुछ कारण निम्न हो सकते हैं जैसे कि सच बताने पर गुरु मेरे बारे में क्या सोचेंगे, मेरी Prestige down हो सकती है, सहवर्ती मुनि मुझे हीन दृष्टि से देखेंगे, शिष्य या छोटे साधुजन मुझे सम्मान नहीं देंगे, समाज में मेरी छवि बिगड़ जाएगी। इस क्रिया के प्रति उपेक्षा होने में पाप का भय, जिनवाणी के प्रति श्रद्धा, आत्म जागृति आदि का अभाव होना भी कारण हो सकते हैं। प्रायश्चित्त दान से संबंधित कुछ शास्त्रीय नियम • जीतकल्प के अनुसार यदि आचार्य को छेद प्रायश्चित्त आता हो, तो भी
उसे तप योग्य प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। • अधिकृत आचार्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना को (जिस रूप में दोष का आचरण किया गया हो, उसको) ध्यान में रखकर
अधिक या कम प्रायश्चित्त देते हैं। • शास्त्र में प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में विचार करने की चार अपेक्षाएँ हैं- 1.
आवृत्ति 2. प्रमाद 3. दर्प और 4. कल्प।
द्रव्य की अपेक्षा- जहाँ आहार आदि की सुलभता हो, वहाँ अधिक प्रायश्चित्त दिया जाता है और जहाँ आहार आदि दुर्लभ हो, वहाँ परिस्थिति के आधार पर कम या अधिक प्रायश्चित्त देते हैं।
क्षेत्र की अपेक्षा- क्षेत्र स्निग्ध हो तो अधिक प्रायश्चित्त दिया जाता है किन्तु निर्जल एवं रूक्ष क्षेत्र में अल्प प्रायश्चित्त देते हैं।
काल की अपेक्षा- वर्षा और शीतकाल में जघन्यत: निरन्तर तीन उपवास, मध्यमत: निरन्तर चार उपवास एवं उत्कृष्टत: निरन्तर पाँच उपवास देने का विधान है। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु में जघन्य से परिमड्ढ, मध्यम से आयम्बिल एवं उत्कृष्ट से निरन्तर दो उपवास का प्रायश्चित्त दिया जाता है।