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58... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
प्रायश्चित्त विधियों के गवेषणात्मक रहस्य
आलोचना गुरुमुख से ही क्यों?
जैन परम्परा में प्रायश्चित्त या आलोचना गुरुमुख से लेने का विधान है। यहाँ कुछ लोगों के मन में शंका हो सकती है कि आलोचना गुरुमुख से ही क्यों ली जाए ?
• गुरु मुख से आलोचना लेने पर किए गए पाप गुरु एवं शिष्य के बीच ही रहते हैं। अन्य किसी को उसके बारे में ज्ञात नहीं होता, क्योंकि आलोचना एकांत में ली जाती है।
• गुरु अनुभवी एवं गीतार्थ होने के कारण शिष्य की मुख मुद्रा एवं हावभावों के द्वारा उसके पश्चात्ताप की तरतमता को जानकर यथायोग्य प्रायश्चित्त दे सकते हैं।
• यदि कोई पाप छिपाने के भाव हो या किसी दोष को उजागर करने में भय हो तो भी गुरु की वात्सल्य दृष्टि, सौम्य मुखमंडल आदि से प्रभावित होकर उसकी आलोचना शुद्ध एवं पूर्ण हो सकती है।
• आलोचना करते समय शुभ भावों के उत्पन्न होने से अनेक पाप कर्मों की निर्जरा उसी समय हो जाती है।
• गुरु शिष्य के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है तथा गुरु के निष्पक्ष भाव से शिष्य में गुरु के प्रति आदर भाव बढ़ता है।
• लिखित आलोचना किसी अन्य के हाथ लग सकती है अथवा सभी के सम्मुख आलोचना करने से अन्य लोगों के मन में अपराधी साधु के प्रति जुगुप्सा भाव उत्पन्न हो सकते हैं।
आलोचना विधिपूर्वक ही क्यों?
आलोचना विधिपूर्वक लेने के निम्न कारण हैं
• सर्वप्रथम तो विधि पूर्वक कोई भी कार्य करने से उसमें मनोभूमिका अच्छे से तैयार हो जाती है तथा वह क्रिया व्यवस्थित रूप से सम्पन्न होती है।
•
इससे मन के परिणाम शांत एवं निर्मल बनते हैं तथा आलोचना अच्छी प्रकार से ग्रहण की जा सकती है।
आलोचना एकांत में क्यों लेनी चाहिए?
• एकांत में निर्भीकता पूर्वक समस्त पापों की आलोचना की जा सकती है।