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60...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
भाव की अपेक्षा- निरोगी व्यक्ति को निश्चित रूप से अधिक एवं उत्कृष्ट तप का प्रायश्चित्त देते हैं और ग्लान व्यक्ति को काल का अतिक्रमण करके अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है।
पुरुष प्रतिसेवना की अपेक्षा- व्यक्ति गीतार्थ और अगीतार्थ, क्षमावान और अक्षमावान, ऋजु और मायावी, सज्जन और दुष्ट, परिणामी और अपरिणामी आदि अनेक प्रकार की प्रकृति के होते हैं अत: उनकी प्रकृति के अनुसार जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट प्रायश्चित्त देते हैं।
. जो व्यक्ति शक्ति, धैर्य, कल्पस्थ एवं सर्वगुणों से युक्त हों, उसे अधिक तप रूप प्रायश्चित्त देने का विधान है तथा हीन गुण वाले को कम प्रायश्चित्त देने का नियम है।
• जो चारित्र पालित हो, अज्ञातार्थ हो, असहिष्णु हो, उनको विभाजन के अनुसार नीवि से लेकर निरन्तर तीन उपवास तप का प्रायश्चित्त देते हैं। जो दर्प से युक्त हो, उसे सामान्य से कुछ अधिक प्रायश्चित्त दिया जाता है तथा जो दोषों का बार-बार सेवन करता हो, उसे अहंकारी व्यक्ति के समान अधिक प्रायश्चित्त देते हैं।
• आलोचना के काल तथा कष्ट को सहन करने की क्षमता जानकर कमअधिक या मध्यम प्रायश्चित्त देते हैं।
• आगम-व्यवहारी मुनि अपराधी की प्रतिसेवना को अतिशायी ज्ञान से जानकर जितने प्रायश्चित्त से उसकी विशोधि होती है, उतना प्रायश्चित्त देते हैं। श्रुतव्यवहारी गुरु उपदेश के आधार पर यथोचित्त प्रायश्चित्त देते हैं। कोई मासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना कर ऋजुता से आलोचना करता है तो उसे स्वस्थान (मासिक) प्रायश्चित्त दिया जाता है।12
इस प्रकार प्रायश्चित्त मोक्षोपलब्धि का अभिन्न कारण है तथा जिससे मोक्ष रूपी परम सुख हासिल किया जा सकता है उससे अन्य क्या नहीं पाया जा सकता? ___ आज के दुषमकाल में जहाँ मानसिक एवं भावनात्मक स्तर न्यून होता जा रहा है। दोहरापन एवं अपराधवृत्तियाँ बढ़ती जा रही है। लोगों में कर्तव्यों के प्रति लापरवाही और मर्यादा उल्लंघन की सीमाएँ पार हो रही है। ऐसी स्थिति में प्रायश्चित्त जैसा विधान लौकिक एवं लोकोत्तर प्रगति तथा व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक विशुद्धि का मुख्य सोपान हो सकता है।