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________________ 56...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण इसी तरह के अनेक लाभ होते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में ध्यातव्य है कि बड़ा प्रायश्चित्त आने पर डरना नहीं चाहिए, क्योंकि कदाच उस प्रायश्चित्त को पूर्ण न कर पायें तो भी वह जीव विराधक नहीं कहलाता, कारण कि उस प्रायश्चित्त कर्ता के भाव गृहीत दण्ड को पूर्ण करने के ही रहे हैं। इसके विपरीत यदि साधक आलोचना ग्रहण ही नहीं करे तो वह महाविराधक बन जाता है तथा उन पापशल्यों के कुसंस्कारों से युक्त परलोक में चला जाए तो वह अनंत काल तक संसार परिभ्रमण करता रहता है। लक्ष्मणा साध्वी ने कपटपूर्वक आलोचना लेकर 800 कोडाकोडी सागरोपम काल तक संसार की अभिवृद्धि की। इस प्रकार पापों की पूर्ण आलोचना करने वाला साधक ही सच्चा आराधक कहलाता है। प्रायश्चित्त आवश्यक क्यों? कई लोगों के अन्तर्मन में यह प्रश्न उभरता है कि व्यक्ति के द्वारा कोई बड़ा अपराध हो जाये तो उसे सजा देना और लेना आवश्यक है किन्तु सामान्य भूलों या अनुचित कार्यों के लिए दण्ड व्यवहार की पद्धति जरूरी नहीं है। इंसान होने के कारण छोटी-बड़ी गलतियाँ होती रहती है। उसे गुरु के समक्ष कहना हंसीमजाक होगा। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि घाव छोटा हो या बड़ा, वह दुखदायी ही होता है अत: गल्ती कैसी भी हो उसे दूर करना, उसके लिए पश्चात्ताप करना जरूरी है। अनेक बार उपेक्षित छोटा सा पाप भी भयंकर दुष्फल का कारण बन जाता है। छोटे-छोटे पाप कार्यों से मिलने वाली भयंकर कर्म सजा में अन्तर्निहित कुछ कारण निम्न हैं मनुष्य भव की गणना जीव की उत्कृष्ट पर्याय रूप में होती है। उच्च पद पर आसीन व्यक्ति का छोटा सा गुन्हा भी व्यावहारिक जीवन में बड़ी सजा का कारण माना जाता है जैसे कि न्यायाधीश थोड़ी भी रिश्वत ले तो उसे पदच्युत कर दिया जाता है। वैसे ही प्रज्ञा सम्पन्न मानव यदि गुनाह करे तो वह उसके अधिक पतन का कारण बनता है। बाहर में भले ही कोई क्रिया सूक्ष्म परिलक्षित होती हो परंतु उसके भीतर में रहे हुए प्रबल कषाय भाव उसे स्थूल पाप में परिवर्तित कर देते हैं जैसे कि अंधेरे में रस्सी को सांप समझकर उसे लकड़ी से मारने का प्रयत्न किया, वहाँ
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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