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प्रायश्चित्त दान की उपयोगिता एवं उसके प्रभाव... 55
भावोल्लास से अनन्त कर्मों की निर्जरा और पुण्य बंधन भी होता है।
कई जन भव आलोचना लेने से इसलिए डरते हैं कि उसके प्रायश्चित्त के रूप में दिए गए दंड को पूर्ण करना उन्हें दुष्कर लगता है । किन्तु उन लोगों को दूसरा यह पक्ष भी सोचना चाहिए कि पाप कार्यों को प्रकाशित करने से वह क्रिया जीवन परिवर्तन एवं चित्त को धर्ममय प्रवृत्ति में जोड़ने में हेतुभूत बनती है।
कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि आलोचना ग्रहण करने के पश्चात उसे पूर्ण करने में तद्रूप भावोल्लास जागृत नहीं हुआ तो फिर आलोचना लेने और उसे पूर्ण करने से भी क्या फायदा?
इसका समाधान यह है कि कोई भी व्यक्ति कुछ कार्य करता है तो सम्पूर्ण कार्य में न भी सही पर कुछ समय तो उस कार्य में मन का जुड़ाव होता है वैसे ही आलोचना (प्रायश्चित्त) काल में कभी-कभी तो मन उससे बंधेगा ही । जितना समय सार्थक बने उतना अच्छा है। आलोचना न लेने पर तो सारा पाप जैसा का वैसा ही बना रहेगा।
कदाच आलोचना लेने की अपेक्षा प्रायश्चित्त वहन करते समय भाव धारा और अधिक भी विशुद्ध हो जाती है इसलिए सभी अपेक्षाओं से प्रायश्चित्त करणीय है।
4. पाप कार्यों के प्रति तीव्र पश्चात्ताप होने के साथ-साथ आलोचना करने की तमन्ना और प्रयत्न में भाव वृद्धि होने से विपुल कर्मों का क्षय हो जाता है । शास्त्रों के अनुसार प्रायश्चित्त ग्रहण करने के उत्कृष्ट शुभ अध्यवसायों के परिणामस्वरूप कई बार भाव शुद्धि मात्र से ही केवलज्ञान तक की प्राप्ति हो जाती है। महानिशीथसूत्र में ऐसे कई उदाहरणों का वर्णन है जिनमें आलोचना के लिए प्रवृत्त होते हुए, गुरु समक्ष उसे प्रकट करते हुए अथवा गृहीत आलोचना को पूर्ण करते-करते साधकों ने सर्वथा कर्म क्षय कर लिया।
इस प्रकार जीवनचर्या में लगे दोषों का प्रायश्चित्त करने पर
• पाप कार्य से बंधे हुए एवं अन्य कर्मों का क्षय होता है। • संसार चक्र का मूलभूत कारण अहं तत्त्व विसर्जित होता है । • धर्माराधना में प्रवेश होता है।
• शुभ भावों की वृद्धि होती है।