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________________ 50... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण इस प्रकार आलोचना आदि सात प्रायश्चित्तों को क्रमशः बढ़ते हुए व्रण की चिकित्सा के तुल्य जानना चाहिए। व्रण दृष्टान्त के आधार पर इन सात प्रायश्चित्तों की उपादेयता निर्विवादतः सिद्ध होती है। शेष मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चिक- इन तीन प्रायश्चित्त योग्य अपराधों (भावव्रण) में व्रण दृष्टान्त घटित नहीं होता, क्योंकि उनमें सम्यक् चारित्र का सर्वथा अभाव होता है। जैसे कि प्रगाढ़तर अपराध होने पर संयम पर्याय का मूल से विच्छेद कर दुबारा दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में एक निश्चित अवधि के बाद पुन: दीक्षा दी जाती है तथा पारांचिक प्रायश्चित्त में क्षेत्र और देश से व्यक्ति को पृथक् कर दिया जाता है। किन्हीं मतानुसार उसे संघ से सदा के लिए बहिष्कृत कर देते हैं। इस प्रकार अंतिम तीन प्रायश्चित्त में अल्प अवधि के लिए ही सही, चारित्र का अभाव होता है अतः चिकित्सा योग्य न होकर जीवन का पुनर्निमाण करने योग्य है। इन प्रायश्चित्तों से पुनः निर्मल चारित्र की प्राप्ति होती है । उत्तराध्ययनसूत्र में प्रायश्चित्त की मूल्यवत्ता का दिग्दर्शन करते हुए भगवान . महावीर ने कहा है च पायच्छित्तकरणेणं पावकम्म विसोहिं जणय ... आयारफलं आराहेई ।। प्रायश्चित्त करने से जीव पाप कर्म की विशुद्धि (अर्थात पाप कर्म को चेतनसत्ता से पृथक्) करता है और निरतिचार युक्त हो जाता है । सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने वाला मार्ग (सम्यक्त्व) और मार्गफल (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार (चारित्र) और आचारफल (मुक्ति) की आराधना करता है। इसका सार रूप तत्त्व यह है कि प्रायश्चित्त से रत्नत्रय की सम्यक आराधना हो है और उससे नियमानुसार मोक्षपद प्राप्त होता है। 5 निशीथभाष्य में प्रायश्चित्त की उपयोगिता का कथन करते हुए बताया गया है कि पच्छित्तेण विसोही, पमाय बहुलस्स होइ जीवस्स निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया । । प्रमाद बहुल प्राणी भी प्रायश्चित्त से विशोधि प्राप्त करता है । चारित्रधारी मुनियों के चारित्र की रक्षा हेतु प्रायश्चित्त अंकुश के समान है। सिद्धान्ततः प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र नहीं रहता, चारित्र के अभाव में तीर्थ (चतुर्विध संघ) नहीं रहता, तीर्थ के अभाव में मुनि निर्वाण को प्राप्त नहीं
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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