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प्रायश्चित्त दान की उपयोगिता एवं उसके प्रभाव...51 होता और निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक हो जाती है। सुस्पष्ट है कि दीक्षा, चारित्र, तीर्थ, निर्वाण आदि प्रायश्चित्त के आधार पर ही अवस्थित हैं।
निशीथ भाष्यकार ने प्रायश्चित्त को औषधि की उपमा देते हुए कहा है कि तीर्थंकर धन्वंतरि तुल्य है, अपराधी साधु रोगी के समान है, अपराध रोग तुल्य है और प्रायश्चित्त औषधि के समान है। कहने का भाव यह है कि प्रायश्चित्त एक प्रकार की चिकित्सा है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं अपितु रोग निवारण के लिए की जाती है, इसी प्रकार प्रायश्चित्त अपराधों के उपशमनार्थ दिया जाता है। जैसे बाह्य उपचार से शारीरिक रोगों का उपचार संभव है वैसे ही प्रायश्चित्त आत्म रोगों को समाप्त करता है।'
टीकाकार संघदासगणि प्रायश्चित्त की आवश्यकता दर्शाते हुए कहते हैं कि अपराधी साधक को छोटी सी भूल की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उससे भारी नुकसान होता है। इस तथ्य की स्पष्टता में टीकाकार ने यह भी निर्देश दिया है कि मुनि को चारित्र की विशुद्धि के लिए स्वेच्छा से प्रायश्चित्त वहन करना चाहिए, राजदण्ड की तरह विवश होकर प्रायश्चित्त न करे। राजदण्ड वहन न करने पर शरीर का नाश होता है। उसी तरह प्रायश्चित्त वहन न करने पर चारित्र का विनाश होता है। छोटी सी भूल की उपेक्षा करने के कितने भयंकर परिणाम आते हैं निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है
• सरणि- एक सारणि से सिंचाई की जाती थी, उसमें एक तृणशूक फंस गया। उसे निकाला नहीं, फिर दूसरा फंस गया। कालान्तर में धीरे-धीरे वह सरणि कचरे से भर गई। पानी का आगे बढ़ना बंद हो गया। परिणामत: खेत सूख गया।
• शकट- एक गाड़ी में पत्थर भरने लगे, उस समय लकड़ी का एक भाग टूट गया, उसको उपेक्षित कर दिया गया। भरते-भरते एक बड़ा पत्थर गाड़ी में डाला गया तो पूरी गाड़ी ही टूट गई।
• वस्त्र- साफ-सुधरे वस्त्र पर कीचड़ का एक छींटा लगा, उसे साफ नहीं किया, हर दिन छींटा लगने से एक दिन वह वस्त्र कीचड़ वर्ण वाला हो गया। इसी प्रकार छोटे-छोटे अपराधों का प्रायश्चित्त न करने से एक दिन चारित्र मलीन हो जाता है और शनैः शनैः धर्मसत्त्व अधर्म में रूपान्तरित हो जाता है।
तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने प्रायश्चित्त की अनिवार्यता को पुष्ट करने वाले सात लाभों का वर्णन इस प्रकार किया है