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48... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
पाँचवें प्रकार से चुभे हुए काँटे का व्रण जल्दी ठीक हो जाये, इसके लिए रोगी को चलने आदि की क्रिया का निषेध करते हैं।
छठे प्रकार से चुभे हुए काँटे में चिकित्सा शास्त्र के अनुसार पथ्य और अल्प भोजन द्वारा अथवा भोजन का सर्वथा त्याग करवाकर व्रण को सुखाते हैं। सातवें प्रकार से चुभे हुए काँटे का शल्योद्धार करने के पश्चात उस जगह का दूषित मांस, पीप आदि निकाल दिया जाता है। यदि सर्प, बिच्छू आदि के डंक मारने से घाव हुआ हो अथवा वल्मीक जैसे रोगों में उक्त चिकित्सा से घाव ठीक नहीं होता हो तो शेष अंगों की रक्षा के लिए दूषित अंग को हड्डी के साथ काट दिया जाता है। यह द्रव्यव्रण समझना चाहिए | 2
उत्कृष्ट चारित्रधारी मुनियों के द्वारा पृथ्वीकायिक आदि जीवों की विराधना होने से जो शल्य उत्पन्न होता है अर्थात पापकर्म रूपी काँटा पैदा होता है वह भावव्रण कहलाता है। भावव्रण की चिकित्सा के लिए दस प्रायश्चित्तों का निर्देश है। इस आध्यात्मिक रहस्य को सूक्ष्मबुद्धि से ही जाना जा सकता है। भावव्रण की चिकित्सा रूप दस प्रायश्चित्तों को द्रव्यव्रण के साथ घटित किया जा सकता है। इससे प्रत्येक प्रायश्चित्त का उपयोगी अस्तित्व समझ आ जाता है। वह संक्षेप में इस प्रकार है—
1. गुरु को सूचित किये बिना परस्पर वाचना, परिवर्त्तना करने पर तथा वस्त्र आदि का आदान-प्रदान करने पर जो दोष लगता है उसे गुरु को कह देने मात्र से वह शुद्ध हो जाता है। यह प्रायश्चित्त प्रथम काँटे (शल्य) के समान है और उसकी आलोचना भी प्रथम शल्योद्धार के समान ही है। जिस प्रकार प्रथम शल्य में शल्योद्धार के अतिरिक्त अन्य उपाय आवश्यक नहीं होता उसी प्रकार दोषों के निराकरण में भी आलोचना के अतिरिक्त अन्य प्रायश्चित्त करना आवश्यक नहीं है।
2. समिति, गुप्ति आदि में अचानक नियमों का अतिक्रमण या भंग होने पर उनका स्मरण कर ‘मिच्छामि दुक्कडं' देने ( प्रतिक्रमण) से अपराधी शुद्ध हो जाता है। यह प्रतिक्रमण रूप भाव चिकित्सा द्वितीय प्रकार के शल्योद्धार में व्रण मर्दन तुल्य है।
3. मूलगुण अथवा उत्तरगुणों के अतिक्रमण में संदेह होने पर अथवा जानबूझकर अतिक्रमण करने पर 'तदुभय' से शुद्धि हो जाती है। यहाँ आलोचना