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अध्याय-3
प्रायश्चित्त दान की उपयोगिता एवं उसके प्रभाव
जिस क्रिया से चित्त विशुद्ध होता है अथवा जो आत्मशुद्धि का प्रशस्त हेतु है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। आवश्यकचूर्णि के अनुसार असत्य आचरण का अनुस्मरण कर उसके शोधन के लिए तदनुरूप दण्ड स्वीकार करना प्रायश्चित्त है। ____ जैनाचार्यों ने प्रायश्चित्त के दस प्रकार बतलाये हैं। इसका अभिप्राय यह है कि समस्त प्रकार के पाप कर्म इन दस के आचरण से आत्म पृथक् हो जाते हैं
और आत्मा निजानन्द का अनुभव करती हुई शीघ्रमेव शुद्ध स्वरूप को प्रकट कर लेती है। दसविध प्रायश्चित्तों में प्रत्येक का स्वतन्त्र अस्तित्व एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस विषय को उदाहरण से स्पष्ट किया है जिससे प्रायश्चित्त की आवश्यकता स्वत: सिद्ध हो जाती है। पंचाशकप्रकरण के अनुसार शरीर में तद्भव और आगन्तुक- ऐसे दो प्रकार के व्रण होते हैं। तद्भव अर्थात शरीर से उत्पन्न गाँठ आदि और आगन्तुक अर्थात काँटा आदि लगने से होने वाला व्रण। इसमें आगन्तुक व्रण (घाव) का शल्योद्धरण किया जा सकता है किन्तु तद्भव व्रण का नहीं।
जो काँटा पतला हो, तीक्ष्ण मुखवाला न हो और केवल त्वचा से ही लगा हो उस काँटे को सुगमता से बाहर खींच लिया जाता है किन्तु उस व्रण का मर्दन नहीं किया जाता। __जो काँटा शरीर में प्रथम प्रकार के शल्य से थोड़ा अधिक लगा हो किन्तु गहरा न हो- ऐसे काँटे को थोड़ा खींचकर निकाला जाता है और उस घाव का मर्दन भी किया जाता है किन्तु उसमें कर्णमल नहीं भरा जाता।
जो काँटा पूर्वापेक्षा अधिक गहरा लगा हो तो इस तीसरे प्रकार में शल्योद्धार, व्रणमर्दन और कर्णमल पूरण- ये तीनों प्रक्रियाएँ की जाती है। ___चौथे प्रकार से चुभे हुए काँटे के स्थान पर शल्य निकालने के पश्चात दर्द नहीं हो, इसके लिए थोड़ा खून निकालते हैं।