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जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...43
गुरु चौमासी उपवास 4 उपवास 120 120 लघु छहमासी बेला 6
उपवास 165 165 गुरु छहमासी तेला 6
उपवास 180 180 इस अध्याय के समाहार रूप में कहा जा सकता है कि प्रायश्चित्त एक आचार मूलक विधान है। प्रत्येक भव्य जीव के लिए यह जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है जीव की द्रव्य एवं भावदशा के अनुसार उसे प्रायश्चित्त देना। जैनाचार्यों ने अत्यन्त सूक्ष्मतापूर्वक इस विषय पर चिंतन करते हुए प्रायश्चित्त दाता, प्रायश्चित्त प्रमाण, उसकी गोपनीयता आदि का विधान किया है। ताकि प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाला अधिक से अधिक शुद्ध एवं परिपूर्ण प्रायश्चित्त ग्रहण कर सके। द्वितीय अध्याय में वर्णित अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त के माध्यम से जीव स्वयोग्य श्रेयस्कर मार्ग का चयन कर सकता है एवं उस पर अग्रसर होकर आत्मा की विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है। सन्दर्भ-सूची 1. स्थानांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, 10/73 2. व्यवहारभाष्य, मुनि दुलहराज, गा. 53 3. प्रवचनसारोद्धार, 98/750 4. पंचाशकप्रकरण, 16/2 5. मूलाचार, 1033 6. अनगारधर्मामृत, 7/37 की टीका 7. व्यवहारभाष्य, गा. 57 8. विधिमार्गप्रपा, पृ. 79 9. आचारदिनकर, पृ. 6 10. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, 9/22 11. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9/22 12. व्यवहारभाष्य, 58 13. वही, 97-98 14. विधिमार्गप्रपा, पृ. 79 15. आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 242 16. व्यवहारभाष्य, गा. 99 की टीका