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जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...41 • आचार्य जिनप्रभसूरि रचित विधिमार्गप्रपा में प्रायश्चित्त दान के संकेताक्षर निम्न रूप से उपदिष्ट हैं 64
यहाँ तप प्रायश्चित्त का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि लघुपणग से लेकर गुरु छह मास तक बाईस प्रकार के तप होते हैं किन्तु वर्तमान में सात प्रकार के तप ही प्रवर्तित हैं वे सांकेतिक अक्षरों में इस प्रकार हैंपणग = नीवि
चतुःलघु = आयंबिल मासलघु = पुरिमड्ढ चतुःगुरु = उपवास मासगुरु = एकासना षड्लघु = बेला
षड्गुरु = तेला उपर्युक्त सात प्रकार के तप सांकेतिक अंकों में इस प्रकार हैं5 0 0 00 .. 000 ...
00 .. 000 ... पणग मासलघु मासगुरु चतुःलघु चतुःगुरु षट्लघु षद्गुरु
विधिमार्गप्रपा में तप प्रायश्चित्त के रूप में कल्लाण, एग कल्लाण, पंच कल्लाण आदि शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। उनका स्पष्टीकरण निम्नवत है
कल्लाण - नीवि, पुरिमड्ढ, एकासना, आयंबिल और उपवास- इन पाँचों को सम्मिलित करने पर 'कल्लाण' कहलाता है।
एग कल्लाण - नीवि आदि पंचविध तप को अनुक्रमशः एक साथ करने पर एग कल्लाण बराबर तप होता है तथा एग कल्लाण जितना तप करने पर दो उपवास का लाभ मिलता है।
पंच कल्लाण - नीवि आदि पाँचों प्रकार के तप को पाँच से गुणा करने पर पंच कल्लाण बराबर तप होता है तथा पंच कल्लाण जितना तप करने पर दस उपवास का लाभ होता है। • आचार्य वर्धमानसूरि कृत आचारदिनकर में विभिन्न तपों की संज्ञाएँ
और उनके सांकेतिक नाम इस प्रकार हैं1. पुरिमड्ढ = पूर्वार्द्ध, मध्याह्न, कालातिक्रम, लघु, विलम्ब और
पितृकाल। 2. एकासना = पाद, यतिस्वभाव, प्राणाधार, सुभोजन, अरोग, परम और
शान्ता