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24... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
जैसे एक ही पुस्तक के दो अध्याय होते हैं, एक ही महल के दो खण्ड होते हैं, एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही तप के ये दो पहलू हैं। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। बाह्य तप के बिना आभ्यन्तर तप की साधना अत्यंत दुष्कर प्रायः है। इसी भाँति आभ्यन्तर तप के अभाव में केवल बाह्य तप देह दण्डमात्र है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जैसे- बाह्य तप में मन का सम्बन्ध रहता है, वैसे आभ्यन्तर तप में शरीर का भी सम्बन्ध जुड़ा रहता है । उदाहरणार्थ ऊनोदरी बाह्य तप है फिर भी उसमें कषायों की ऊनोदरी का सीधा सम्बन्ध अन्तरंग से है। प्रतिसंलीनता बाह्य तप है; किन्तु अकुशल मन का निरोध, कुशल मन की उदीरणा और मन को एकाग्र करना इसका सम्बन्ध भी ध्यान साधना से जुड़ता है। इसी तरह विनय और वैयावृत्य आभ्यन्तर तप है; किन्तु इनकी प्रवृत्ति का सीधा सम्बन्ध दृश्य जगत से जुड़ता है। वैयावृत्य का सम्पर्क भी शरीर जगत से जुड़ा हुआ दिखाई देता है | 3
इस तरह सुस्पष्ट होता है कि बाह्य एवं आभ्यन्तर भेद तप की प्रक्रिया समझाने के लिए है न कि एक को श्रेष्ठ साबित कर दूसरे के मूल्य को घटाने के लिए। सार रूप में कहा जा सकता है कि बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों तप समान रूप से आचरणीय एवं प्रशंसनीय है।
तप का वर्गीकरण
तप आत्मशोधन की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है, आत्म-साधना की अखण्ड इकाई है, किन्तु फिर भी उसके प्रयोग के भिन्न-भिन्न रूप एवं पृथक् पृथक् विधियाँ होने के कारण तपश्चरण के कई भेद - प्रभेद किये गये हैं । मूलतः आगम-साहित्य में तप को दो भागों में विभक्त किया गया है (शारीरिक) और 2. आभ्यन्तर तप (मानसिक) 14
1. बाह्य तप
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जिस तप में शारीरिक क्रिया की प्रमुखता होती है और जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षायुक्त होने से दूसरों को दृष्टिगोचर होता है उसे बाह्य तप कहते हैं। जिस तप में मानसिक क्रिया की प्रधानता होती है और जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरों को दिखाई नहीं देता, उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं।
शास्त्रों में तप के मुख्य दो भेद करके प्रत्येक के छह-छह उपभेद बताये गये हैं और उनके अन्तर्भेद अनेक हैं। अन्तर्भेदों का अध्ययन करने से स्पष्ट