________________
तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...23 पुनठल्लेख्य है कि जो आभ्यन्तर तप के सामने बाह्य तप को नगण्य मानते हैं, उन्हें यह चिन्तन करना चाहिए कि यदि बाह्य तप अनुपयोगी होता तो भगवान् ऋषभदेव एक वर्ष तक भूखे रहकर शारीरिक कष्ट क्यों उठाते ? भगवान् महावीर साढ़े बारह वर्ष की साधना काल में अधिकतम समय उपवास आदि में व्यतीत क्यों करते ? धन्ना अणगार जो चौदह हजार श्रमणों में सर्वश्रेष्ठ तपस्वी घोषित किये गये, वे छ8-छट्ठ के पारणे आयंबिल तप क्यों आचरते ? आखिर बाह्य तप की भी शक्ति है, चमत्कार है।
अनुभवत: बाह्य तप में साधक के मनोबल एवं कष्ट सहिष्णुता की जितनी कसौटी होती है उतनी आभ्यन्तर तप में नहीं होती। जैसे- स्वर्ण को पहले तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसके बाद ही उस पर मालिश करते हैं। इसी तरह बाह्य तप द्वारा पहले शारीरिक और मानसिक शुद्धि कर ली जाती है और फिर आभ्यन्तर तप से साधना में निखार आता है। यह तथ्य समझने जैसा है कि जब तक मानसिक मलिनता दूर नहीं होती, चित्त शुद्ध नहीं होता तब तक ध्यान, स्वाध्याय आदि प्रवृत्तियाँ सार्थक परिणाम कैसे दे सकती हैं ? मुक्ति का अन्तरंग कारण कैसे बन सकती हैं? इसी अपेक्षा से बाह्य तप का क्रम पहले रखा गया है।
बाह्य तप को साधने के पश्चात ही आभ्यन्तर तप की साधना भली-भाँति की जा सकती है। दूसरी दृष्टि से यदि बाह्य तप के साथ आभ्यन्तर तप नहीं हो तो वह तप केवल दैहिक कृशता का ही आधार बन सकेगा, विषय-वासना, कषायादि को क्षीण करने में निमित्त नहीं बन सकता। तप परिभाषा के अनुसार जिसके द्वारा शरीर और कषाय आदि कर्म दोनों क्षीण होते हैं, वही तप सच्चा तप होता है।
आचार्य मधुकर मुनि के उल्लेखानुसार तप में बाह्य-आभ्यन्तर का भेद बहुत मौलिक भेद नहीं है जैसे- किसी एक ही राजप्रासाद में एक आभ्यन्तर भाग होता है और दूसरा बाह्य भाग। आभ्यन्तर भाग राजा के अन्तरंग जीवन का केन्द्र होता है और बाह्य भाग राज्य संचालन आदि व्यवस्था का। किन्तु इसमें यह कहना कि बाह्य भाग कम महत्त्व का है तो यह उचित नहीं होगा। राज्य की दृष्टि से दोनों का ही महत्त्व है तथा दोनों ही अपनी-अपनी जगह में आवश्यक एवं उपयोगी हैं।