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________________ 22...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक साधारण के द्वारा सहज रूप से की जा सकती है तथा साधारण मानवों में स्वीकृत भी है 4. यह तप लोकव्यवहार में स्पष्ट रूप से दिखता है 5. अन्यतीर्थिक भी अपने-अपने मत के अनुसार इनका पालन करते हैं 6. इनमें शारीरिक कष्ट की अनुभूति अधिक होती है 7. यह तप दृष्ट होने से अज्ञानी जीव भी इस प्रकार के तपों में रुचि रखते हैं और नाम प्रसिद्धि के लिए इनका आचरण करते हैं। प्रायश्चित्त आदि निम्न कारणों से आभ्यन्तर तप कहलाते हैं - 1. इनमें बाहरी द्रव्यों अर्थात आहार आदि त्याग की अपेक्षा नहीं होती 2. ये मुक्ति के अन्तरंग कारण होते हैं 3. प्रायश्चित्त आदि तपस्या विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा ही आचरित की जाती है 4. विनय, प्रायश्चित्त आदि तप लोक प्रसिद्ध नहीं है 5. प्रायश्चित्त आदि तप अदृष्ट होने से सर्वसाधारण जन इसके प्रति उद्यमवन्त नहीं बनते हैं और 6. इनमें शारीरिक संयम के साथ-साथ मन: संयम की आवश्यकता भी सर्वाधिक रहती है। उक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि कतिपय सामान्य कारणों को लेकर ही तप के विभिन्न प्रकारों को बाह्य और आभ्यन्तर के रूप में वर्गीकृत किया गया है। फलित की दृष्टि से सर्व तप समान हैं। बाह्य एवं आभ्यन्तर तप में श्रेष्ठ कौन ? वीतराग पुरुषों ने तप के मुख्य दो भेद किये हैं – बाह्य और आभ्यन्तर। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि जैन साधना में बाह्य तप और आभ्यन्तर तप का जो वर्गीकरण किया गया है वह साधक को समझाने की दृष्टि से है; किन्तु दोनों ही प्रकार के तपों का लक्ष्य आत्म विशोधन ही है। बाह्य तप में शारीरिक क्रिया की प्रधानता होने के बावजूद भी उसमें अन्तर्मन मिला हुआ होता है, अत: बाह्य तप का भी उतना ही महत्त्व है जितना आभ्यन्तर तप का है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। कुछ लोगों की यह मानसिकता बन गयी है कि बाह्य तप साधारण तप है, आभ्यन्तर तप बड़ा तप है। बाह्य का महत्त्व कम है, आभ्यन्तर का अधिक है। यह एक गलत धारणा है। शास्त्रों में आभ्यन्तर तप का जो महत्त्व है, वही बाह्य तप का भी माना गया है। अनेकान्त सिद्धान्त से किसी एक तप का आग्रह करना सही नहीं है, दोनों की समान आराधना करना ही वास्तव में सम्यक् आराधना है।
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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