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अध्याय-2
तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य
तप एक वैवेध्यपूर्ण एवं विस्तृत विषय है। जैन शास्त्रों में तप का गरिमापूर्ण स्थान है। सिद्धि प्राप्ति हेतु यह परम एवं चरम उपाय है इसी कारण तीर्थंकर परमात्मा ने तप सेवन के विविध मार्ग बताए हैं। ताकि प्रत्येक वर्ग एवं मानस्थिति के साधक तप मार्ग पर अग्रसर होकर कर्ममुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकें। बाह्य और आभ्यन्तर तप भेद के हेत
तपाराधना का मुख्य ध्येय जीवन शोधन है। शास्त्रों में जहाँ-तहाँ तप का वर्णन किया गया है, वहाँ इसी भाव की प्रतिध्वनि सुनायी देती है। शास्त्र पाठों में तप के विषय में यही कहा गया है कि “तवेण परिसुज्झइ, तवसा निज्जरिज्जइ, तवेण धुणइ पुराण पावगं, सोहगो तवो' इन शब्दों की ध्वनि में यही संकेत छिपा है कि तप से आत्मा निर्मल, पवित्र एवं विशुद्ध हो जाता है।
यहाँ प्रश्न होता है कि जब किसी भी तप विशेष के आचरण से पाप कर्म नष्ट होकर आत्मा शुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाती है तब सभी प्रकार के तपों की कोटियाँ सामान्य रहनी चाहिए, फिर बाह्य और आभ्यन्तर ऐसा भेद क्यों ?
इसका सीधा सा जवाब यह है कि तपश्चरण का जो मूल स्वरूप है उसमें कोई अन्तर नहीं है। तप किसी भी कोटि या श्रेणी का हो, वह एकान्तत: संचित कर्मों की निर्जरा का ही कारण बनता है। बाह्य-आभ्यन्तर तप सम्बन्धी यह अन्तर दृष्ट-अदृष्ट, खाद्य-अखाद्य, सामान्य-विशेष तप साधकों की अपेक्षा से है।
टीकाकार शान्त्याचार्य ने उत्तराध्ययनसूत्र का विश्लेषण करते हुए इस तथ्य के स्पष्टीकरण में कहा है कि अनशन आदि तप निम्न कारणों से बाह्य तप कहलाते हैं -
1. इनमें अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि बाहरी द्रव्यों का त्याग होता है 2. ये मुक्ति के बहिरंग कारण होते हैं 3. अनशन आदि तपस्या सर्व