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तप का स्वरूप एवं परिभाषाएँ...13
"यथाशक्ति" कहे। पुन: एक खमासमण देकर बोले - "इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! पच्चक्खाण पारेमि?" फिर गुरु के अन्तर्भावों को धारण करता हुआ 'तहत्ति' शब्द कहे। तत्पश्चात सुखासन में बैठकर बन्द मुट्ठी पूर्वक एक नवकार मन्त्र गिने। फिर पहले दिन जो प्रत्याख्यान धारण किया गया था, उस प्रत्याख्यान का नाम लेकर निम्न पाठ बोले।
"पच्चक्खाणं फासियं, पालियं, सोहियं, तीरियं, किट्टियं आराहियं जं च न आराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं।"
उसके बाद एक नवकार मन्त्र गिने।
चैत्यवन्दन एवं स्वाध्याय- तदनन्तर एक खमासमण देकर "इच्छाकारेण संदिसह भगवन! चैत्यवन्दन करूँ? इच्छं कहकर जयउसामिय० (तपागच्छ परम्परानुसार जग चिन्तामणि०) जंकिंचि०, णमुत्थुणं०, जावंति चेइआइं०, जावंतकेविसाहू०, उवस्सग्गहरं०, जयवीयराय० तक सूत्रपाठ कहें। पश्चात गुरु भगवन्त हो तो उनके मुखारविन्द से दशवैकालिकसूत्र का प्रथम अध्ययन ‘धम्मोमंगलमुक्किटुं' की पाँच गाथा का स्वाध्याय सुनें, अन्यथा स्वाध्याय रूप में तीन नवकारमन्त्र का स्मरण करें। तपागच्छ परम्परा में स्वाध्यायार्थ 'भरत बाहुबली' का पाठ बोलते- सुनते हैं। उसके बाद भोजन-पानी जो भी ग्रहण करना हो, करें।
यदि एकासना या आयंबिल आदि का प्रत्याख्यान पूर्ण किया हो तो एकासन आदि करने के पश्चात उसी आसन में बैठे हुए दिवसचरिम तिविहार का प्रत्याख्यान ग्रहण करे तथा ईर्यापथिक प्रतिक्रमण कर पूर्ववत चैत्यवन्दन भी करें। यह अन्तिम चैत्यवन्दन आहार संवरण के उद्देश्य से किया जाता है।
प्रस्तुत विधि एक बार गुरुमुख से समझ लेनी चाहिए। हर एक तप में करने की सामान्य विधि
तीर्थङ्कर पुरुषों ने भिन्न-भिन्न रुचि एवं सामर्थ्य के अनुरूप तपश्चरण के अनेक प्रकार निरूपित किये हैं। उनमें कुछ सुगम तो कुछ दुर्गम, कितने ही अल्प अवधि वाले तो कई दीर्घ अवधि से सम्बन्धित हैं। इन प्रत्येक तपों में अधोलिखित नियमों का यथाशक्य परिपालन करना चाहिए। 1. उभय संध्याओं में (दोनों वक्त) प्रतिक्रमण करना चाहिए।