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तप का स्वरूप एवं परिभाषाएँ... 9
निश्चयतः चारित्रनिष्ठ मुनि ही तप के अधिकारी होते हैं। पूर्वोक्त लक्षण व्यवहार अपेक्षा से बतलाये गये हैं। मुनि का शास्त्रीय नाम 'श्रमण' है। टीकाकारों ने श्रमण का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ करते हुए उसे एक जगह तपस्वी ही कहा है। इससे स्पष्ट है कि तप के मुख्य अधिकारी मुनि होते हैं। 37
तपस्वी कौन ?
अनशन, ऊनोदरी, आतापना आदि करने वाला तपस्वी होता है, यह कथन सर्वत्र सिद्ध नहीं होता । तपस्वी द्वारा तप साधना किस ध्येय से की जा रही है, यह बिन्दु महत्त्वपूर्ण है । यदि तपश्चर्या के प्रतिफल के रूप में सांसारिक या भौतिक सुख की इच्छाएँ मौजूद हैं तो वह तप, तपस्वी पद को लज्जित और तप की अक्षुण्ण परम्परा को धूमिल करता है । इस तरह के मनोभाव से की गयी तप-साधनाएँ तपस्वी के लिए कल्याणकारी नहीं होती, प्रत्युत दुर्गति की ओर उन्मुख करती हैं।
उपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने इस सम्बन्ध में मन्तव्य प्रस्तुत करते हुए कहा है कि लोकप्रवाह का अनुसरण करते हुए तपस्या करने वाला साधक अज्ञानवृत्ति को सूचित करता है तथा उसकी वह तपस्या सुखशीलता का प्रतीक है जबकि ज्ञानी पुरुष लौकिक जगत के विरुद्ध प्रवाह में अनुगमन करते हुए उत्कृष्ट तप आचरते हैं और वे ही तपस्वी की संज्ञा से अभिहित होते हैं | 38
ज्ञानीजन तपश्चर्या करते हुए मन में चिन्तन करते हैं कि “तीर्थंङ्कर परमात्मा स्वयं भी दीक्षा ग्रहण कर तप करते हैं, अलबत्ता उन्हें भलीभाँति यह ज्ञात होता है कि वे केवलज्ञान के अधिकारी बनेंगे, फिर भी घोर तपश्चर्या का आलम्बन स्वीकार करते हैं । तब हे जीव ! तुम्हें तो तप करना ही चाहिए ।" इस प्रकार पूर्व पुरुषों के मार्ग को आत्मोपकारी मानते हुए उसका आचरण करते हैं, अतः ऐसे साधक ही सच्चे तपस्वी की कोटि में गिने जा सकते हैं।
जिस तरह धनार्थी के लिए सर्दी-गर्मी आदि कष्ट दुस्सह नहीं होते ठीक उसी तरह संसार विरक्त, कर्म निर्जरा के चाहक साधक को भी तप दुस्सह नहीं लगता। आत्मविशुद्धि के लक्ष्य से तप करने वाली आत्माएँ ही 'तपस्वी' कही जाती हैं। 39
उपाध्याय यशोविजय जी कहते हैं कि तपस्वी को ज्ञान दृष्टि से युक्त होना चाहिए क्योंकि ज्ञानदृष्टिवान तपस्वी ही साध्य का सामीप्य पा सकते हैं। ज्ञान