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10...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक उसे साध्य-मोक्ष सुख की कल्पना देता है, जैसे-जैसे मोक्ष सन्निकट होता है, शाश्वत माधुर्य में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है और वे अपूर्व आनन्द का अनुभव करते हैं। यही आनन्द उसकी कठोर तपश्चर्या को जीवन देता है।40 वस्तुत: मधुरता के बिना आनन्द नहीं होता और बिना आनन्द के कठोर धर्म क्रियाएँ दीर्घावधि तक टिक नहीं सकती। इस तरह ज्ञानयुक्त तपश्चर्या तपस्वी को अक्षुण्ण सुख का उपभोक्ता बनाती है। हमें ऐसे तपस्वी बनने का आदर्श सम्मुख रखना चाहिए। तप प्रारम्भ हेतु शुभ दिन ___तप साधना जैसा मंगल अनुष्ठान शुभ समय में प्रारम्भ करना चाहिए। यों तो जब भी शुभ भावना का उदय हो, सुकृत किया जा सकता है तदुपरान्त किन्हीं अनुष्ठानों के लिए मंगल वेला को आवश्यक माना गया है। आचार्य वर्धमानसूरि ने इस सम्बन्ध में सम्यक् प्रकाश डाला है। उनके अभिमतानुसार -
प्रतिष्ठा और दीक्षा में जो काल त्याज्य बताया गया है वही काल छहमासी तप, वर्षीतप तथा एक मास से अधिक समय वाले तप को प्रारम्भ करने में भी वर्जित मानना चाहिए।
शुभ मुहूर्त में तप प्रारम्भ कर लेने के पश्चात दिवस, पक्ष, मास या वर्ष अशुभ आ जाए, तो उसमें कोई दोष नहीं है।
प्रव्रज्या के बाद प्रथम विहार करने, सामान्य तप का प्रारम्भ करने, उपधान आदि के समय नन्दी रचना करने एवं आलोचना करने में मृदु, ध्रुव, चर, क्षिप्र संज्ञा वाले नक्षत्र तथा मंगल और शनिवार के सिवाय शेष वार शुभ माने गये हैं।
तिथि की मुख्यता वाले तप में सूर्योदय के समय जो तिथि हो, वह तिथि लेना श्रेष्ठ है, किन्तु तिथि का क्षय हो, तो पूर्व दिवस में और तिथि की वृद्धि हो तो दूसरे वृद्धि के दिन उस तिथि का तप करना चाहिए।41 ___ इस प्रकार तपस्या का प्रारम्भ करने के लिए उपरोक्त शुद्धि का ध्यान रखना चाहिए। तप प्रारम्भ करने की पूर्व विधि ___ आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में कहा गया है कि तपस्वी को तपोयोग की निर्विघ्न समाप्ति के लिए तप के प्रारम्भ में कुछ सदनुष्ठान करने चाहिए। आचार्य वर्धमानसूरि के मन्तव्यानुसार- 1. तीर्थङ्कर परमात्मा की