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8...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक शाब्दिक दृष्टि से भिन्न हैं, किन्तु भाव एक ही है। इन्द्रिय संयम, मन संयम, वचन संयम ये सब तप के ही अन्तर्गत आते हैं। भगवान महावीर ने धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है - "अहिंसा संजमो तवो"
धर्म- अहिंसा, संयम एवं तप रूप है। इन तीनों शब्दों के अर्थ बाह्यतः पृथक्-पृथक् हैं, किन्तु गहराई में उतरने पर उनमें अभेदपना प्रतीत होता है। प्राचीन ग्रन्थों में संयम, नियम, इच्छा-निरोध आदि को तप की ही कोटि में गिना गया है। जैन आगमों के अनुशीलन से यह निश्चित हो जाता है कि जैन धर्म की समस्त साधना जो आचारप्रधान और ज्ञानप्रधान है, वह सब तपोमय ही है। तप का क्षेत्र इतना व्यापक है कि स्वाध्याय, सेवा, भक्ति, अनशन, प्रायश्चित्त, कायक्लेश, इन्द्रियदमन, ध्यान, विनय आदि धर्म की समस्त क्रियाएँ उसके अन्तर्गत आती हैं। तप करने का अधिकार किसे?
जैन दर्शन की मान्यतानुसार मानव मात्र अनन्त शक्ति का पुंज है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने का सामर्थ्य विद्यमान है। अन्तर इतना भर है कि किन्हीं की शक्तियाँ अभिव्यक्त हो चुकी हैं तथा किन्हीं की शक्तियाँ अनभिव्यक्त हैं। जिस आत्मा की मूल शक्तियाँ न्यूनाधिक रूप से भी जागृत हो जाती हैं वह स्व लक्ष्य को शीघ्र पा लेती हैं। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए जैनाचार्यों ने तपसाधना हेतु योग्य अधिकारी का निर्देश किया है। नाम मात्र का तप कर लेना मुश्किल नहीं है। तामली तापस आदि कईयों ने हजारों वर्षों की तपश्चर्याएँ की, किन्तु सम्यक् तप करना दुर्भर है। योग्यता प्राप्त साधक तपोयोग की आराधना समझ पूर्वक करता है। आचार्य वर्धमानसूरि ने निम्नोक्त लक्षणयुक्त जीवों को तप-साधना का अधिकारी माना है। ___ आचारदिनकर के अनुसार जो शान्त हो, अल्प निद्रालु हो, अल्पाहारी हो, कामना रहित हो, कषाय वर्जित हो, धैर्यवान हो, अनिन्दक हो, गुरुजनों की शुश्रुषा में तत्पर हो, कर्म क्षय का अर्थी हो, राग एवं द्वेष का विच्छेद हो, दयालु हो, विनीत हो, इहलौकिक-पारलौकिक सुख कामना से मुक्त हो, क्षमावान हो, निरोगी हो और उत्कण्ठारहित हो - ऐसे जीव तप करने के योग्य होते हैं। इन गुणों से युक्त जीव की तपश्चर्या मोक्षफलदायी एवं शाश्वत सुखप्रदायी होती है।36
उपाध्याय यशोविजयजी ने कहा है कि मूलगुण एवं उत्तरगुण के धारक श्रेष्ठ मुनि बाह्य और अन्तरंग तप का आचरण करते हैं। इसका हार्द यह है कि