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तप का स्वरूप एवं परिभाषाएँ...7 आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार छेद ग्रन्थ अथवा जीतकल्प में वर्णित तप आचरण द्वारा जितनी भाव विशुद्धि होती है, उसे सच्चा तप जानना चाहिए।34
पं. आशाधर रचित अनगारधर्मामृत में तप का विशिष्ट स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है
तपो मनोऽक्ष कायाणां, तपनात तन्निरोधनात । निरुच्यते दृमाद्यावि, र्भावायेच्छा निरोधनम् ।। यद्वा मार्गा विरोधेन, कर्मोच्छेदाय तप्यते ।
अर्जयत्यक्ष-मनसोस्तत्तपो नियम क्रिया ।। मन, इन्द्रियाँ और शरीर को तपाने पर अथवा इन्हें सम्यक् रूप से नियन्त्रित करने पर सम्यग्दर्शन आदि का प्रादुर्भाव होना तथा इच्छाओं का निरोध होना तप कहलाता है। प्रकारान्तर से रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग में किसी प्रकार की हानि न पहुँचाते हुए शुभ-अशुभ कर्मों का निर्मूल विनाश करने के लिए जो तपा जाता है, वह तप है।35
पं. आशाधरजी ने पूर्वाचार्यों का अनुसरण करते हुए इन्द्रिय, मन एवं शरीर को कुश करने पर ही अधिक बल दिया है। उनका मन्तव्य है कि देह आदि को तपाने से इच्छाओं का दमनीय परिशीलन होता है तथा इच्छाओं के अवरुद्ध होने से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है।
इसी तरह महापुराण, . तत्त्वार्थभाष्य, चारित्रसार, आराधनासार, अमितगतिश्रावकाचार, तत्त्वार्थसार आदि कई ग्रन्थों में तप का मौलिक स्वरूप उपलब्ध होता है।
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि जो परम्पराएँ सिर्फ देह दमन मात्र को तप मानती हैं, वे तप के सम्पूर्ण स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। तप वास्तव में देह दमन तक सीमित नहीं है, उसका अंकुश इच्छा और वासना पर रहता है। ऊपर वर्णित ग्रन्थकारों ने तप के बाह्य और आभ्यन्तर द्विविध तप कोटियों को महत्त्व दिया है। ___यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि शास्त्रों में जहाँ कहीं संयम का वर्णन है वहाँ तप का वर्णन अवश्य किया गया है, क्योंकि जैसे जल के बिना मछली जीवित नहीं रह सकती, हवा के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं हो सकती, वैसे ही संयम के बिना तप की साधना भी चल नहीं सकती। यथार्थत: संयम और तप