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6...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक के लिए मिथ्यात्व का निरोध करना तप है। "तिण्हं रयणाणमाविम्भावट्टमिच्छाणिरोहो तवो।" ___ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में मोक्षमार्ग के अनुकूल कायिक कष्ट को तप कहा गया है।27 आचार्य विद्यानन्द जी ने इस सम्बन्ध में शास्त्रीय परिभाषा उपदिष्ट की है
अनिगूहित वीर्यस्य सम्यग्मार्गाविरोधतः । कायक्लेशः समाख्यातं, विशुद्धं शक्तितस्तपः ।।
अपनी आत्म-शक्ति को छिपाये बिना मोक्षमार्ग के अनुरूप शरीर को कष्ट देना, वही विशुद्ध तप है।28
भगवती आराधना में एक जगह कहा गया है कि अपेक्षा और फल की कामना के बिना अनशन आदि के परित्याग रूप जो क्रिया है, वह तप है।29 यहाँ बारह प्रकार की तपस्या को तप संज्ञा दी गई है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामीकुमार ने विविध कष्टों के साथ समत्व भाव को तप कहा है
इह-परलोयसुहाणं, णिरवेक्खो जो करेदि समभावो । विविहं कायकिलेसं, तवधम्मो णिम्मलो तस्स ।।
जो इहलौकिक - पारलौकिक सुख की कामना के बिना अनेक प्रकार के दैहिक कष्टों को समभावपूर्वक झेलता है, वही निर्मल तप है।30
उपासकाध्ययन में आत्मशुद्धि में निमित्तभूत कर्म को तप बतलाया है। आचार्य सोमदेवसूरि इस सम्बन्ध में अपना अभिप्राय बताते हैं कि
अन्तर्बहिर्मलप्लोषादात्मनः शुद्धिकारणम् । शारीरं मानसं कर्म, तपः प्राहुस्तपोधनाः ।।
शारीरिक और मानसिक कर्म जो आत्मा के अन्तर एवं बाह्य मलों को निष्कासित करता हुआ उसकी शुद्धि में कारणभूत बनता है, उसे तप कहा गया है।31 ___ आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में पांच इन्द्रियों और मन को नियन्त्रित रखने वाले अनुष्ठान को तप कहा है। "इन्द्रियमनसोर्नियमानुष्ठानं तपः।"32
सैद्धान्तिक चक्रवर्ती वीरनन्दी ने भी आचारसार में इन्द्रिय एवं मन के नियामक अनुष्ठान को ही तप कहा है।33