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तप का स्वरूप एवं परिभाषाएँ...5 तप की शास्त्रीय परिभाषाएँ
जैसे सूर्य और अग्नि के ताप से बाह्य मल दूर हो जाता है, वैसे ही तप के द्वारा अन्तर मलों का शोधन होता है। जैन-साहित्य में इस तरह की अनेक परिभाषाएँ उल्लिखित हैं। जैनागमों में तप शब्द का प्रयोग तो देखा जाता है किन्तु वहाँ तप के फलादेश पर ही अधिक चर्चा है, जबकि टीका ग्रन्थों एवं परवर्ती ग्रन्थों में यह वर्णन समुचित रूप से प्राप्त होता है। जो इस प्रकार है
तप की भाव प्रधान परिभाषा करते हुए एक आचार्य ने कहा है- "इच्छा निरोधस्तपः" इच्छाओं का निरोध करना ही तप है। इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं। उन अनन्त लिप्साओं को दूर करने का सम्यक् उपक्रम करना ही तप है। तपो योग से समग्र आकांक्षाएँ सहज नष्ट हो जाती हैं।
आचार्य शिवकोटि तप की विशुद्ध व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि
चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य, आउंजणा य जो होई।
सो चेव जिणेहिं, तवो भणिदो असढं चरंतस्स ।। चारित्र में जो उद्योग और उपयोग किया जाता है, जिनेश्वर परमात्मा ने उसे ही तप कहा है तथा यह तप आराधना मायारहित मुनि के लिए ही सम्भव है। यहाँ सम्यक् चारित्र को ही सम्यक् तप कहा गया है।24
आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्म निमग्नता की स्थिति को तप बतलाया है। वे द्वादशानप्रेक्षा में निर्दिष्ट करते हैं
विसय-कसाय विणिग्गह भावं, काऊण झाण-सज्झाए ।
जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ।। विषय-कषायों का निग्रह करके ध्यान और स्वाध्याय में निरत होते हुए जो आत्मा को ध्याता है अर्थात आत्मचिन्तन करता है उसके ही नियम से तप होता है।25
उपाध्याय यशोविजयजी ने बाह्याभ्यन्तर तपों को अभीष्ट मानते हुए कहा है
ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् ।। जो कर्मों को तपाता है वह ज्ञानरूप क्रिया ही तप है।26 धवला पुस्तक के अनुसार मोक्ष मार्ग के तीन साधनों को आविर्भूत करने