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तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक...xlix
तो हाथ की अंगुलियों का सहारा लेना जरूरी हो जाता है। ठीक वैसे ही चार घाती कर्म के सम्पूर्ण क्षय के पश्चात शेष रहे चार अघाती कर्म सुई जैसे हैं। उनके लिए तप ही करना होता है और इसीलिए तप की आराधना सभी करते हैं।
यह शोध कृति तपाचार एवं तपोधर्म से ही सम्बन्धित है। इसमें तप विषयक समग्र पहलुओं पर मंथन किया गया है जो कि सात अध्यायों में निम्न प्रकार उल्लिखित है
प्रथम अध्याय में तप का स्वरूप एवं उसकी भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ बताई गई हैं जिससे 'तप' शब्द के अनेक अर्थों का बोध होता है और उसका रहस्यगत भावार्थ भी स्पष्ट हो जाता है।
द्वितीय अध्याय में तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। इस अध्याय के मंथन से तप के विविध पक्षों को सुगमता से समझा जा सकता है।
तृतीय अध्याय में तप की महिमा को उजागर करने वाले कई विषयों पर प्रकाश डाला गया है। जैसे कि तप अन्तराय कर्म का उदय नहीं, तप साधना का उद्देश्य, तप की आवश्यकता क्यों, विविध दृष्टियों से तप की मूल्यवत्ता आदि का सारगर्भित एवं सटीक विवेचन किया है।
चतुर्थ अध्याय श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में प्रचलित तप विधियों से सम्बन्धित है। इसमें मुख्यतया श्वेताम्बर प्रवर्तित तपों का सविधि एवं सोद्देश्य वर्णन करते हुए उनके मूल पाठ भी दिये गये हैं। तपाराधकों के लिए यह अध्याय अत्यन्त उपयोगी है।
पंचम अध्याय भारतीय परम्पराओं में प्रचलित व्रतों से सम्बन्धित है। इसमें मुख्यतया हिन्दू, बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम धर्म के व्रतों एवं पर्वोत्सवों का संक्षेप में वर्णन करते हुए जैन परम्परा से तुलना की गई है। ___षष्ठम अध्याय में तप का ऐतिहासिक अनुशीलन एवं उसका तुलनात्मक पक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसी के साथ तप को शोभित करने हेतु एवं तप पूर्णाहुति की अनुमोदना निमित्त उद्यापन करना चाहिए तथा उसके महत्त्व आदि को दर्शाया गया है।