________________
xlviii...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
भी नितान्त सत्य है कि यदि काया को वश में कर लिया तो मन स्वयमेव स्थिर हो जायेगा। यह कार्य तप द्वारा ही साध्य है क्योंकि तप से काया कसने लगती है।
जैन वाङ्मय में मोक्ष प्राप्ति के लिए क्रमशः द्विविध, त्रिविध एवं चतुर्विध मार्गों का प्रतिपादन है। द्विविध मार्ग में ज्ञान और क्रिया, त्रिविध मार्ग में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र तथा चतुर्विध मार्ग में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का समावेश होता है। भगवान महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यगदर्शन आदि चतुः मार्गों को आत्मशुद्धि हेतु अत्यावश्यक कहा है। आचार्यों ने इससे बढ़कर यह भी कहा है कि भले ही चारित्र सम्यक चारित्र हो फिर भी तप के बिना मोक्ष नहीं हो सकता अर्थात रत्नत्रयी की आराधना भी तप के बिना अधूरी है, क्योंकि समस्त कर्मों के क्षय हेतु तप करना जरूरी हो जाता है। स्वयं तीर्थंकर परमात्मा भी कर्मों से मुक्त होने के लिए उग्र तश्चरण करते हैं। नवपद पूजा के तपपद स्तवन में कहा गया है कि जाणता तिहुं ज्ञाने संयुत, ते भव मुक्ति जिणंद ।
जेह आदरे कर्म खपेवा, ते तप सुरतरू कंद ।।
मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञान से युक्त भगवान स्वयं जानते हैं कि मैं इसी भव में मोक्ष जाऊँगा, फिर भी वे अपने कर्मों के क्षय हेतु तप धर्म की आराधना करते हैं, कठोर तप करते हैं। प्रभु वीर ने साढ़े बारह वर्ष तक जो तप किया, उसकी तो कल्पना भी हम नहीं कर सकते ।
तप की आवश्यकता को पुष्ट करते हुए आगमकारों ने यह भी कहा है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना से घाती कर्मों का क्षय हो जाता है किन्तु अघाती कर्मों का नाश करने के लिए तो तप का ही आलम्बन लेना पड़ता है। चार घाती कर्मों के क्षय होने से तो केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है जबकि निर्वाण पद की प्राप्ति अघाती कर्मों के नष्ट होने पर ही सम्भव है और इन अघाती कर्मों को तप के आचरण से ही खत्म किया जा सकता है।
जैसे हाथी की सूंड़ में बड़ी-बड़ी वस्तुएँ तो आ सकती है किन्तु एक सुई यदि जमीन पर से उठाना हो, तो वह नहीं उठा सकता। उसके लिए