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________________ 228...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक है, किन्तु कर्मों की निर्जरा (आत्मा से कर्म समूह का पृथक् होना) तप द्वारा ही होती है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है - "तपसा निर्जरा च" तप से निर्जरा होती है। चतुर्विध मोक्षमार्ग को उदाहरण के द्वारा अधिक स्पष्ट समझा जा सकता है। कल्पना कीजिए, एक बहुत बड़ा हॉल है, उसकी सभी खिड़कियाँ और दरवाजे खुले हैं। यदि उस समय अचानक तूफानी हवा या आँधी आ जाये तो क्या होगा? वह हॉल धूल से भर जायेगा। तब ऐसा समझिये कि हॉल खुला है और आंधी आई है। इस तरह की अनुभूति करना दर्शन है। इस तूफान से हॉल में कचरा और धूल भर रही है, यह दरवाजे या खिड़की के खुले होने से हो रहा है, यह समझना ज्ञान है। उस वक्त दरवाजे और खिड़कियों को जल्दी से बन्द कर देना चारित्र है। चारित्र से कर्मों का आना रुकता है, किन्तु जो कचरा हॉल में प्रवेश कर चुका है उसको बाहर करने के लिए झाड़ लगानी ही पड़ेगी। बस, ठीक वैसे ही तप भी झाड़ की तरह अन्दर के कचरे को साफ करने का कार्य करता है। अनादिकाल से जो पाप कर्म हमारी अन्तर आत्मा पर लगे हुए हैं, जमे हुए हैं, उन्हें साफ करने के लिए तप आवश्यक है। यहाँ प्रश्न होता है कि तप कैसा हो? वास्तविक तप कौन सा है? उपाध्याय यशोविजयजी ने नवपद पूजा में कहा है कि इच्छा रोधे संवरी, परिणति समता योगे रे । तप ते एहिज आतमा, वर्ते निज गुण भोगे रे ।। इच्छा का निरोध करने वाला, संवर रूप परिणति को उत्पन्न करने वाला और समता योग से प्रवर्तित होने वाला तप ही वास्तविक तप है। इस प्रकार का तप करने वाली आत्मा ही स्वयं में रमण करती है और अपने आत्मिक गुणों का आस्वादन करती है। यदि तप करते हुए इच्छा का निरोध न हो, अध्यवसाय संवर रूप न हो और समत्व की स्थिति न हो तो शास्त्रों में बताया गया है कि बड़ीबड़ी तपश्चर्या करने वाले भी संसार में भटक जाते हैं तथा प्रतिदिन आहार करने वाले केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं।
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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