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उपसंहार...229
जैन आगमों में कूरगडू मुनि का दृष्टान्त आता है। उस मुनि के विषय में कहा गया है कि उन्हें हर रोज सुबह होते ही क्षुधा - वेदनीय भयंकर सताती थी। एक बार संवत्सरी का दिन आया, उनके सहवर्ती सभी साधु दीर्घ तपश्चर्या कर रहे हैं, किसी के मासक्षमण है, किसी के अट्ठाई है, किसी के तेला है और आज उपवास तो सभी ने किया ही है। संवत्सरी का दिन, खाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता? परंतु कुरगडू मुनि भूखे नहीं रह सकते थे। उनका कूरगडू नाम इसीलिए पड़ा कि कूर यानी चावल और गडू यानी घड़ा - प्रतिदिन एक घड़ा भरकर चावल खाने के कारण उन्हें कूरगडू कहते थे। कूरगडू मुनि ने संवत्सरी के दिन भी चावल लाये, साध्वाचार के नियमानुसार वहाँ उपस्थित सर्व साधुओं को आहार ग्रहण करने का निवेदन किया। उस वक्त सभी तपस्वी साधुओं ने उनकी निन्दा की, किन्हीं ने धिक्कारते हुए उस पात्र में थूक दिया तो किसी ने गहरी अवमानना की, किन्तु इतना सब होते हुए भी कूरगडू मुनि अपने आत्म- ध्यान में लीन रहे। वे किसी को दोषी न ठहराते हुए अपने आपकी निन्दा कर रहे थे कि मैं कैसा पापी हूँ? आज महान पर्व के दिन भी खाने का मोह छोड़ नहीं सका और ये सभी तो कितने महान तपस्वी ? चलो, इन्होंने थूक दिया तो क्या ? अच्छा ही हुआ घी नहीं डलवाया था, यह तपस्वियों का थूक घी का काम करेगा। इस प्रकार सहवर्ती तपस्वियों के तप की प्रशंसा और आत्म निन्दा करते हुए उस मुनि को खाते-खाते केवलज्ञान हो गया और बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी सब देखते रह गये ।
जैन शासन की यही विशिष्टता है कि यहाँ खाते-खाते भी पा जाते हैं और तप करते-करते भी रह जाते हैं। ठीक इसके विपरीत शास्त्रों में तामली तापस का उदाहरण आता है कि उसने 60 हजार वर्ष तक घोर तप किया, छट्ठ के पारणे छट्ठ (बेला) और पारणे में 21 बार धोए हुए चावल आयंबिल के रूप में लेते थे। ऐसा कठोर तप करने पर भी उस तापस का कल्याण नहीं हुआ। अतः तप सम्यक् एवं शुद्ध आशय वाला होना चाहिए।
एक युवक ने प्रश्न पूछा तप से क्या होता है ? जवाब दियातप से क्या नहीं होता है? तप धर्म के सेवन से सब कुछ हो सकता