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अध्याय-7
उपसंहार
मानव मात्र का अन्तिम लक्ष्य आत्म शुद्धि होना चाहिए। मोक्षार्थी साधक की समस्त क्रियाओं का मूल लक्ष्य स्वरूप दशा को प्राप्त करना ही होता है। तप इस लक्ष्य की पूर्ति का श्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट साधन है तथा निर्विवादतः उसका फल अचिन्त्य और असीम है जैसे - कल्पवृक्ष से मनोवांछित किसी भी वस्तु को प्राप्त कर सकते हैं, चिन्तामणि रत्न के प्रभाव से चित्त अवधारित सभी संकल्प पूर्ण हो जाते हैं वैसे ही तप के प्रभाव से समग्र इच्छाएँ फलीभूत होती हैं। इसीलिए तप को सर्व सम्पत्तियों की 'अमरबेल' कहा है। भगवान महावीर ने तो यहाँ तक कह दिया है कि- "भव कोडी संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ" करोड़ों भवों के संचित कर्म तप से क्षीण/ निर्जरित हो जाते हैं।
आगमवाणी का अनुसरण करते हुए एक कवि ने तप को और भी अद्भुत बतलाया है कि- "कर्म निकाचित पण क्षय जाये, क्षमा सहित जे करतां" यदि तपस्या समताभाव पूर्वक की जाये तो उससे निकाचित ( अत्यन्त क्लिष्ट) कर्म भी नष्ट हो जाते हैं।
उक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि रत्नत्रय की आराधना निकाचित (जिन कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है ) कर्मों को साफ नहीं कर सकती, किन्तु तप-साधना में तो ऐसी शक्ति है कि वह निकाचित कर्मों का भी सफाया कर देती है। अन्यत्र भी कहा गया है कि "तप करिये समता राखी घटमां " दिल में अपार और वास्तविक समता भाव रखते हुए तप करना चाहिए। इस तरह का तप निश्चित ही निकाचित, अनिकाचित और अर्धनिकाचित सभी प्रकार के कर्मों का क्षय कर सकता है। इसीलिए रत्नत्रयी की आराधना भी तप के बिना अधूरी है। दर्शन से श्रद्धा, ज्ञान से यथार्थ जानकारी, चारित्र से कर्म का संवर यानी कि कर्मबन्ध पर अंकुश लगता