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128... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
आज के बुद्धिजीवियों को विश्वस्त करने हेतु वैज्ञानिक अनुसन्धान के उदाहरणों को प्रस्तुत किया गया है और उससे यह प्रमाणित होता है कि ज्ञान में अपूर्ण विज्ञान भी जब तप के मूल्य को प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा है तब पूर्ण ज्ञानी तीर्थङ्कर पुरुष का कहा हुआ अथवा जाना हुआ सत्यांश सत्य है । यहाँ यह भी जान लेना चाहिए कि उपवास काल में कभी-कभार रोग उभर आते हैं; किन्तु उनसे घबराने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्युत वह उभार रोग से मुक्त लक्षण है।
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वैज्ञानिक दृष्टि से - वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी तपः साधना का महत्त्व बहुत अधिक है। शरीर शास्त्रियों का मानना है कि शरीर का आभ्यन्तर यन्त्र रबड़ की नलियों के सदृश है, जो व्यक्ति अधिक भोजन करता है उसकी वह नली फैल जाती है। उस नली के फैलने से रक्त संचरण की स्वाभाविक क्रिया में व्याघात होता है जबकि उपवास आदि तप के दौरान भोजन ग्रहण न करने से नलियाँ सिकुड़कर अपनी स्वाभाविक स्थिति में आ जाती हैं। रक्त में से व्यर्थ का पानी निकल जाता है और रक्त गाढ़ा बन जाता है जिससे शरीर में हल्कापन अनुभव होता है। किन्तु नलिकाओं की दीवार से शीघ्र ही पुराना श्लेष्म निकलकर रक्त मिश्रित हो जाता है फलतः व्यक्ति को बेचैनी का अनुभव हो सकता है, पर जब श्लेष्म मूत्र द्वारा बाहर निकल जाता है तो पुन: बेचैनी या घबराहट मिट जाती है। यही कारण है कि तपस्वियों को उपवास के पांचवें छठें दिन की अपेक्षा बीसवें-इक्कीसवें दिन अधिक शक्ति का अनुभव होता है । शरीर में से सम्पूर्ण मल विकार निकल जाने से स्वस्थता में अभिवृद्धि होती है। श्रुत आराधना की दृष्टि से - पूर्वाचार्यों ने कहा है कि ज्ञान सार संसार मां, ज्ञान परम सुख हेत । ज्ञान बिना जग जीवड़ो, न लहे तत्त्व संकेत ।।
इस संसार में ज्ञान उत्तम है, वही परम सुख का हेतु है और उसके बिना इस जगत का कोई भी जीव तत्त्वबोध को प्राप्त नहीं कर सकता।
समस्त प्रकार के ज्ञानों में श्रुत ज्ञान श्रेष्ठ है, क्योंकि वह उन्मार्गगामी जीव को सन्मार्ग की ओर ले जाता है। इस श्रुत ज्ञान में अनेक गहन शास्त्रों का समावेश है इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने उसकी तुलना समुद्र के साथ की है । वे भगवान महावीर की स्तुति करते हुए कहते हैं.
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