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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...129 बोधागाधं सुपदपदवी, नीर पुराभिरामं, जीवा हिंसा विरल लहरी, संगमागाहदेहं । चूलावेलं गुरुगम-मणी, संकुलं दूरपारं,
सारं वीरागमजलनिधि, सादरं साधु सेवे ।। वीर प्रभु का आगम समुद्र अपरिमित ज्ञान के कारण गम्भीर है, ललित पदों की रचना रूप जल से मनोहर है, जीवदया-सम्बन्धी सूक्ष्म विचारों रूप मोतियों से भरपूर होने के कारण उसमें प्रवेश करना कठिन है, चूलिका आलापकरूप रत्नों से भरपूर है और जिसको सम्पूर्ण रूप से पार करना अत्यन्त मुश्किल है, उस ज्ञान की मैं (आचार्य) आदरपूर्वक सेवा करता हूँ।
यहाँ श्रुत ज्ञान की विशिष्टता बतलाने का अभिप्राय यह है कि सामान्य पुरुष इस तरह के गहन श्रुत को सरलता से प्राप्त नहीं कर सकता, परन्तु विशिष्ट तप का आश्रय लेकर इस कार्य को शक्य किया जा सकता है। यही कारण है कि मनियों के लिए योगोद्वहन का और गृहस्थों के लिए उपधान तप का विधान है। ___ यहाँ किसी के मनस केन्द्र में यह प्रश्न उभर सकता है कि सूत्र सिद्धान्तों को सम्यक रीति से ग्रहण करने के लिए धारणा शक्ति अच्छी होनी चाहिए, सैद्धान्तिक अर्थों को भली-भाँति समझ सके उसके लिए बद्धि तीव्र होनी चाहिए तथा सिद्धान्तों का सूक्ष्म रहस्य पाने के लिए एकाग्रता होनी चाहिए अर्थात लोक व्यवहार में ज्ञानार्जन के लिए धारणा, बुद्धि और एकाग्रता का होना आवश्यक मानते हैं फिर उसके स्थान पर योगोद्वहन और उपधान की योजना क्यों? इसका उत्तर यह है कि जब मानसिक जड़ता का नाश होता है और चित्त का विक्षेप अत्यन्त अल्प हो जाता है तभी धारणा शक्ति, बुद्धि और एकाग्रता का विकास होता है। ऐसी परिस्थिति तप साधना से ही उत्पन्न हो सकती है। इस कारण तपोयुक्त योगोद्वहन और उपधान की योजना यथार्थ है। पुनउल्लेख्य है कि मानसिक जड़ता दूर होने एवं चित्त का विक्षेप न्यून होने पर श्रुत ज्ञान की आराधना का फल शीघ्रता से प्राप्त हो जाता है अर्थात श्रुत ज्ञान का तीव्रता से विकास होता है। इस तरह योगोद्वहन और उपधान तप श्रुत ज्ञान की आराधना में अत्यन्त सहयोग करते हैं। सैद्धान्तिक भाषा में कहें तो मानसिक जड़ता ज्ञानावरणीय कर्म के उदय का परिणाम है और चित्त का विक्षेप मोहनीय कर्म के