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114... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
मोक्ष का साध्य भी है। तीर्थङ्कर पुरुषों ने कहा है कि तपस्या से आत्म की परिशुद्धि होती है, सम्यक्त्व निर्मल बनता है तथा चेतना के स्वाभाविक गुण धर्म अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन व अनन्त चारित्र उज्ज्वल - उज्ज्वलतर बनते हैं। तपस्या का अपर नाम त्याग और प्रत्याख्यान भी है।
एक बार गौतम स्वामी ने प्रभु महावीर से पूछा कि प्रत्याख्यान से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? भगवान इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि
पच्चक्खाणं पच्चक्खाणेणं
आसवदाराइं निरूंभइ । इच्छानि रोहं
जय ।।
प्रत्याख्यान करने से आस्रव द्वारों का यानी कर्माणुओं के आने के मार्ग का निरोध होता है तथा प्रत्याख्यान (त्याग) करने से इच्छाओं का निरोध हो जाता है। इच्छा निरोध होने से यह जीव सर्व द्रव्यों, पदार्थों में तृष्णा रहित हो जाता है और तृष्णा रहित होने से वह परम शान्ति को प्राप्त होता हुआ विचरता है।
तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु का प्रत्याख्यान (त्याग) किया जाता है फिर उस वस्तु को प्राप्त करने अथवा प्राप्त हुई का उपभोग करने की इच्छा नहीं होती। इस प्रकार इच्छा निरोध से इस जीव की समस्त पदार्थों पर से तृष्णा उठ जाती है और जब तृष्णा उठ गयी तो फिर बाह्य और आभ्यन्तर के सन्ताप से रहित होकर वह परम शान्ति में विचरण करता है।
भगवान महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र में तप का मुख्य लाभ बतलाते हुए यह भी कहा है कि "तवेण वोदाणं जणयइ" तप से जीव व्यवदान अर्थात पूर्व सञ्चित कर्मों का क्षय करके आत्मशुद्धि की प्राप्ति करता है। 10
कहने का मूलार्थ यह है कि तप एक प्रकार की विशिष्ट अग्नि है जो कर्ममल को जलाकर भस्मसात कर देने का पूर्ण सामर्थ्य रखती है। इसी बात को पुष्ट करते हुए प्रभु महावीर ने एक जगह पुन: कहा है कि - " तवेण परिसुज्झइ” तपस्या से आत्मा की विशुद्धि होती है। 11
जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब जल आने के मार्ग का निरोध करने से, जल को उलीचने से, सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है उसी प्रकार संयमी पुरुष के पाप कर्म के आने के मार्ग का निरोध होने से करोड़ों भवों के संचित कर्म तपस्या के द्वारा निजीर्ण हो जाते हैं । 12