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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...113
परिशोधन है न कि देह-दण्डन। घृत की शुद्धि के लिए घृत को तपाना होता है न कि पात्र को। उसी प्रकार आत्मशुद्धि के लिए आत्म-विकारों को तपाया जाता है न कि शरीर को। शरीर तो आत्मा का भाजन (पात्र) होने से तप जाता है, तपाया नहीं जाता। जिस तप में मानसिक कष्ट हो, वेदना हो, वह तप नहीं है। पीड़ा का होना एक बात है और उसकी अनुभूति करना दूसरी बात है। तप में पीड़ा हो सकती है लेकिन व्याकुलता की अनुभूति नहीं। पीड़ा शरीर का धर्म है
और व्याकुलता की अनुभूति आत्मा का। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें पीड़ा व अनुभूति को पृथक्-पृथक् देखा जा सकता है। जैन बालक जब उपवास करता है तो उसे भूख की पीड़ा अवश्य होगी, लेकिन वह पीड़ा व्याकुलता की अनुभूति नहीं करता। वह उपवास, तप के रूप में करता है और तप तो आत्मा का आनन्द है। तो कहना यह है कि तप को केवल देह दण्डन मानना बहुत बड़ा भ्रम है। वह अपने आप में बहुत व्यापक है।' __ निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जैन साधना में तप का उद्देश्य आत्म परिशोधन, पूर्वबद्ध कर्म-पुद्गलों को आत्म तत्त्व से पृथक् करना और शुद्ध आत्म तत्त्व को प्रकट करना ही सिद्ध होता है।
हिन्दू-परम्परा भी जैन-परम्परा के समान ही यह मानती है कि तप के द्वारा कर्म-रज दूरकर मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। मुण्डकोपनिषद् के दूसरे मुण्डक का 11वाँ श्लोक इस सन्दर्भ में विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उसमें कहा गया है कि “जो शान्त विद्वतजन वन में रहकर भिक्षाचर्या करते हुए तप और श्रद्धा का सेवन करते हैं। वे विरज हो- कर्म रज को दूरकर सूर्य द्वारा ऊर्ध्व मार्ग से वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँ वह पुरुष (आत्मा) अमूल्य एवं अव्यय होकर निवास करता है।"
बौद्ध साधना में तप का प्रयोजन पापकारक अकुशल धर्मों को तपा डालना माना गया है। इस सन्दर्भ में बुद्ध और निम्रन्थ उपासक सिंह सेनापति का संवाद पर्याप्त प्रकाश डाल देता है। ___इस प्रकार बौद्ध साधना में भी जैन साधना के समान, तप को आत्मा की अकुशल चित्तवृत्तियों को क्षीण करने हेतु स्वीकार किया गया है। तप साधना के लाभ
कर्म शरीर को तपाने वाला अनुष्ठान तप कहलाता है। तप ज्योति भी है और ज्वाला भी है, तप शुद्धि भी है और सिद्धि भी है, तप साधना भी है और