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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...89 (vii) बाल तप - आत्मज्ञान के अभाव में जो तप किया जाता है, उसे बाल तप कहा गया है। इसे अज्ञान-तप भी कहते हैं। जैसे- बालक की क्रियाओं में, चेष्टाओं में कोई लक्ष्य नहीं होता, कोई विशिष्ट ध्येय नहीं होता, वे प्रायः कुतूहल प्रधान या उद्देश्य शून्य-सी होती हैं। इसी कारण किसी व्यर्थ चेष्टा को बालचेष्टा कहा जाता है। उसी तरह मुक्ति के लक्ष्य से शून्य तप को भी ‘बाल तप' कहा जाता है। ___ जैन ग्रन्थों में 'बाल' शब्द का प्रयोग प्राय: 'अज्ञान' के अर्थ में हुआ है। सूत्रकृतांगसूत्र में तीन प्रकार के मरण बताये हैं - बालमरण, पण्डितमरण, बाल-पण्डितमरण। यहाँ भी 'बाल' शब्द अज्ञानी का ही द्योतक है। भगवतीसूत्र में 60 हजार वर्ष तक कठोर तप करने वाले तामली तापस के लिए 'बाल तवस्सी' शब्द का ही प्रयोग किया गया है,185 क्योंकि वह लक्ष्यहीन तप कर रहा था। स्पष्टत: सम्यक्ज्ञान के बिना जो तप किया जाता है वह चाहे कितना ही कठोर और दुर्घर्ष हो, वह बाल तप है। अज्ञान तप से कर्म निर्जरा बहुत कम होती है, जैसे पत्थर ढोने वाला मजदूर सुबह से शाम तक दम तोड़ काम करता है, फिर भी एक-दो रुपये मजदूरी मिलती है जबकि हीरे का व्यापार करने वाला तोला भर सामान लिए भी लाखों का वारा-न्यारा कर लेता है। वैसे ही सम्यग्ज्ञानपूर्वक तप करने वाला बहुत अल्प श्रम में अत्यधिक कर्म निर्जरा रूप लाभ कमा लेता है। ___ सम्यग्ज्ञानपूर्वक और अज्ञानतापूर्वक तप करने वालों की तुलना करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है -
जं अण्णाणी कम्मं खवेदि, भवसय-सहस्स कोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि उस्सासमेत्तेण ।। अर्थात अज्ञानी साधक लाखों-करोड़ों जन्मों तक तप करके जितने कर्म खपाता है सम्यक् ज्ञानी साधक त्रियोग को संयत रखकर श्वास मात्र में उतने कर्म नष्ट कर देता है। इस प्रकार सम्यक्ज्ञानी और अज्ञानी के तप फल में महान् अन्तर होता है।186
आचार्य भद्रबाहु ने कषायों की उत्कटता के साथ जो तप किया जाता है, उसे भी बाल तप कहा है
जस्स वि दुप्पणिहिआ, होंति कसाया तवं चरंतस्स । सो बालतपस्सी विव, गयण्हाण परिस्समं कुणइं ।।