________________
84... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
(ii) शरीर व्युत्सर्ग साधना के अनेक बाधक तत्त्वों में अहंकार और ममकार ये दो मुख्य हैं। मुक्ति पथ पर आरूढ़ साधक अहंकार का भी विसर्जन करता है और ममकार का भी त्याग करता है । ममकार का मूल केन्द्र शरीर है तो शारीरिक ममत्त्व या देहासक्ति का परित्याग करना शरीर व्युत्सर्ग कहलाता है। स्मरणीय है कि कायोत्सर्ग करते समय मूलतः शरीर का व्युत्सर्ग किया जाता है। उस समय किसी तरह की परिस्थिति पैदा न हो जाये, फिर भी साधक देह से निर्ममत्व भाव रखता हुआ अडिग - अकम्प रहता है, यही शरीर व्युत्सर्ग कहा जाता है। यहाँ शरीर व्युत्सर्ग का तात्पर्य शरीर को छोड़ देना नहीं है अपितु शरीर के प्रति रहे हुए ममत्त्व को दूर करना है ।
(iii) उपधि व्युत्सर्ग - मुनियों के लिए वस्त्र, पात्र, पुस्तक, उपकरण आदि का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना उपधि कहलाता है तथा गृहस्थों के लिए मकान, दुकान, स्वर्ण, रजत आदि तमाम उपयोगी वस्तुओं का जरूरत से अधिक संग्रह करना उपधि कहलाता है। यहाँ आवश्यक वस्त्रादि में भी कमी करना जैसे आगम सम्मत तीन वस्त्रों में से दो वस्त्र का त्याग कर देना, पात्र का सर्वथा त्यागकर कर पात्री धर्म का परिपालन करना, इस प्रकार क्रमशः कमी करना उपधि व्युत्सर्ग कहलाता है।
-
(iv) भक्त पान व्युत्सर्ग जब तक शरीर है भोजन - पानी की आवश्यकता रहती ही है। भोजन के अभाव में शरीर अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता, परन्तु शरीर के लिए जितनी आवश्यकता है उससे कम उदर पोषण से काम चल सकता है। अतः आवश्यकता से कुछ कम अथवा सर्वथा भक्त-पान का त्याग कर देना, भक्त पान व्युत्सर्ग कहलाता है।
2. भाव व्युत्सर्ग भाव व्युत्सर्ग तीन प्रकार से किया जाता है - (i) कषाय व्युत्सर्ग (ii) संसार व्युत्सर्ग (iii) कर्म व्युत्सर्ग।
(i) कषाय व्युत्सर्ग - क्रोध, मान, माया और लोभ - इन कषाय चतुष्क को शनैः शनैः या सर्वथा छोड़ने का प्रयत्न करना, कषाय व्युत्सर्ग कहलाता है। आगमों में संसार के लिए यत्र-तत्र 'चाउरन्त संसार' शब्द व्यवहृत है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव रूप चार गतियाँ संसार कहलाती हैं। इन चार गति रूप संसार का परित्याग कर देना संसार व्युत्सर्ग है।
(ii) संसार व्युत्सर्ग
-
-