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82...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक बौद्धिक कुशाग्रता एवं चैतसिक एकाग्रता में वृद्धि होती है। यह प्रमाद, निद्रा एवं आलस्य वृत्ति को क्षीण कर शारीरिक स्फूर्ति प्रदान करता है। ध्यान से शरीरस्थ ग्रन्थियाँ विशेष रूप से प्रभावित होती हैं। परिणामस्वरूप शरीर संस्थान नियन्त्रित, स्राव सन्तुलित एवं विधेयात्मक स्थिति को प्राप्त करते हैं।
ध्यान से आवेग और आवेश पर नियन्त्रण होता है। वर्तमान में बढ़ते मानसिक रोगों का निदान इसके द्वारा सहज हो रहा है। ध्यान के द्वारा आत्मशोधन, समस्याओं का निदान, वैयक्तिक व सामाजिक विकास भी होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में तो ध्यान की मूल्यवत्ता निराबाध है। अनुभूति के स्तर पर कहा जा सकता है कि ध्यान से चित्त शुद्धि, विचार शुद्धि, व्यवहार शुद्धि एवं आचार शुद्धि को पोषण मिलता है। मानसिक विकार शान्त होते हैं, कषायों की ग्रन्थियाँ छूटकर भावों का ऊर्ध्वारोहण होता है। शास्त्रीय दृष्टि से शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों के फलस्वरूप संवर और निर्जरा की विशेष प्राप्ति एवं अनुत्तरविमानवासी देवों का सुख मिलता है तथा अन्तिम दो प्रकारों के प्रभाव स्वरूप निर्वाण पद की प्राप्ति होती है।17
संक्षेप में ध्यान द्वारा बाह्य और आभ्यन्तर द्विविध रोगों का निवारण होता है और जीवन जगत की समस्त समस्याओं का परिसमापन होता है। 6. व्युत्सर्ग तप
वि+उत्सर्ग, इन दो शब्दों के योग से व्यत्सर्ग बना है। 'वि' का अर्थ है विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग अर्थात विशिष्ट त्याग करना व्युत्सर्ग तप कहलाता है। यहाँ विशिष्ट त्याग का तात्पर्य है कि जिन पदार्थों का त्याग करना मुश्किल हो, ऐसे शरीर, कषाय, परिग्रह आदि के प्रति रहे हुए ममत्त्व भाव का विसर्जन कर देना व्युत्सर्ग है।
जीवन में मोह-माया, आशा-तृष्णा, शरीर-स्वजन आदि का बन्धन सबसे बड़ा बन्धन है। इन सबसे निर्लिप्त रहना बहुत मुश्किल है; किन्तु इन बन्धनों से छुटकारा पाये बिना मुक्ति मिल नहीं सकती। इस तप के द्वारा मोहजन्य, लालसाजन्य एवं बन्धनजन्य समस्त पदार्थों का तथा उसके प्रति रही हुई ममत्त्ववृत्ति का त्याग कर दिया जाता है।
आचार्य अकलंक ने व्युत्सर्ग की परिभाषा करते हुए लिखा है कि
"निःसंग-निर्भयत्व-जीविताशा व्युदासाद्यर्थो व्युत्सर्गः"