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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...81 2. असम्मोह – उसे तात्त्विक विषयों में शंका नहीं होती और देव आदि के द्वारा माया आदि की विकर्वणा करने पर भी उसकी श्रद्धा चलित नहीं होती।
3. विवेक - वह सब संयोगों व शरीर से आत्मा को भिन्न जानता है, भिन्न देखता है।
4. व्युत्सर्ग - वह शरीर और जगत की सम्पूर्ण आसक्तियों से निस्संग रहता है।173
शुक्लध्यान के पथ पर अग्रसर होने के लिए निम्न चार आलम्बन कहे गये हैं। इन आलम्बनों के माध्यम से यह आत्मा शुक्लध्यान की ओर आरूढ़ होती है -
1. क्षमा - क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी क्रोध नहीं करना। 2. मार्दव - मान (अहंकार) का प्रसंग उपस्थित होने पर अभिमान नहीं
करना।
3. आर्जव - माया का परित्याग करते हुए जीवन के कण-कण में सरलता होना।
4. मुक्ति - लोभ का पूर्ण रूप से त्याग कर देना।174
ज्ञानार्णव में ध्यान के अशुभ, शुभ और शुद्ध - ये तीन भेद किये गये हैं जो आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों में समाविष्ट हो जाते हैं।175 आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्र ने धर्मध्यान के चार अवान्तर भेदों - पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत का वर्णन किया है।176 विशेषावश्यकभाष्य में वाचिक और कायिक ध्यान का उल्लेख है। आवश्यकचूर्णि में ध्यान के सात विकल्प निरूपित हैं। वैदिक परम्परा में अशुभ और शुभध्यान को क्लिष्ट और अक्लिष्ट ध्यान की संज्ञा दी है। बौद्ध आचार्य बुद्धघोष ने कुशल और अकुशल शब्द का प्रयोग किया है। इस तरह ध्यान के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों की विस्तृत सूची उपलब्ध है।
महत्त्व- चेतना का स्थिर अध्यवसाय ध्यान कहलाता है। शुभध्यान से सद्गति और अशुभध्यान से दुर्गति की प्राप्ति होती है। ध्यान-तप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध होता है। जिस प्रकार जल के द्वारा मलिन वस्त्रों को स्वच्छ किया जाता है ठीक उसी प्रकार ध्यान के द्वारा कर्म मल का शोधन कर आत्मा को शुद्ध किया जाता है। इससे शारीरिक स्वच्छता, मानसिक निर्मलता,