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________________ 80...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक शुक्लध्यान है। इस ध्यान के सम्बन्ध में ध्यातव्य है कि जहाँ पवन नहीं होता, वहाँ दीपक की लौ स्थिर रहती है। यद्यपि सूक्ष्म हवा तो उस दीपक को मिलती ही है, किन्तु तेज हवा नहीं, वैसे ही प्रस्तुत ध्यान में सूक्ष्म विचार चलते हैं परन्तु स्थूल विचार स्थिर रहते हैं जिसके कारण इसे निर्विचार ध्यान कहा गया है। इसमें एक ही वस्तु पर विचार स्थिर होने से यह निर्विचार है। ___(iii) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति - जब केवलज्ञानी का आयुष्य अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब उस समय उनकी योग निरोध की क्रिया प्रारम्भ होती है। तब स्थूल मन-वचन और काया तथा सूक्ष्म मन-वचन का निरोध कर लेते हैं तथा सूक्ष्म काययोग के रूप में श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया ही अवशेष रहती है उस स्थिति का ध्यान सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति शुक्लध्यान कहलाता है। इस ध्यान में अत्यन्त सूक्ष्म क्रिया चलती है। यह स्थिति जिस विशिष्ट साधक को प्राप्त होती है वह पुन: ध्यान से च्युत नहीं हो सकता, इसीलिए इसे सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति कहा है। यह ध्यान केवलज्ञानी को ही होता है। (iv) समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति - इस ध्यान में श्वासोच्छ्वास रूप सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है, आत्मप्रदेश पूर्णत: निष्प्रकम्प बन जाते हैं, मन-वचन-काया के योगों की चञ्चलता पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है, इसीलिए इसे समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान कहा है। यह ध्यान चौदहवें गुणस्थानवर्ती भावी सिद्ध आत्माओं को होता है अर्थात इस ध्यान के तुरन्त बाद आत्मा चार अघाति कर्मों का क्षयकर शुद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाती है। श्वेताम्बर दृष्टि से धर्मध्यान छठे गुणस्थान से प्रारम्भ होता है; किन्तु दिगम्बर-परम्परानुसार धर्मध्यान का प्रारम्भ सातवें गुणस्थान से होता है। शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद सातवें से बारहवें गुणस्थान तक होते हैं। शुक्लध्यान का तृतीय प्रकार तेरहवें गुणस्थान में होता है और चतुर्थ प्रकार में आत्मा चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश कर लेती है। शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकार में श्रुतज्ञान का आलम्बन होता है; किन्तु शेष दो में किसी प्रकार का आलम्बन नहीं होता।172 जैन ग्रन्थों में शुक्लध्यानी के चार लक्षण कहे गये हैं - 1. अव्यथा - वह भयंकर उपसर्गों व परीषहों में किञ्चित मात्र भी चलित नहीं होता और भयभीत नहीं होता।
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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