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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...79 (iv) संस्थानविचय - संस्थान का अर्थ है आकार। इस लोक में विद्यमान द्वीप, सागर, नरक, विमान, पर्वत, स्वर्ग, पंचास्तिकाय, आकाश आदि के आकार का चिन्तन करते हुए आत्मस्वरूप में स्थिर होना धर्मध्यान का अन्तिम प्रकार है। ___धर्मध्यान में स्थिर रहने के चार आलम्बन हैं - 1. वाचना 2. पृच्छना 3. परिवर्तना 4. अनुप्रेक्षा।168
धर्मध्यानी साधक के चार लक्षण बताये गये हैं 1691. वह आगम (प्रवचन) में श्रद्धा रखता है। 2. उपदेश सुनने में श्रद्धा रखता है। 3. तीर्थङ्कर कथित आज्ञा की प्रशंसा करता है। 4. जिनवाणी के प्रति श्रद्धान्वित होता है।
यह धर्मध्यान अप्रमत्त मुनि और उपशान्तमोही या क्षीणमोही (आठवें से तेरहवें गुणस्थानवी जीव) का होता है।170
4. शुक्लध्यान- आत्मा का, आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा के विषय में चिन्तन करना अथवा मिथ्यात्व आदि समग्र अशुद्धियों का विलय हो जाने के कारण जिसकी आत्मा निर्मल बन गयी है उस निर्मल मन की एकाग्रता एवं अत्यन्त स्थिरता ही शुक्लध्यान है।
शुक्लध्यान दो प्रकार का कहा गया है - 1. शुक्लध्यान और 2. परमशुक्लध्यान। चतुर्दशपूर्वी का ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है और केवलज्ञानी का ध्यान परमशुक्लध्यान कहलाता है। यह भेद ध्यान की विशुद्धता और अधिकतम स्थिरता की दृष्टि से किये गये हैं। स्वरूपतः शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं171_ - (i) पृथक्त्व वितर्क सविचार - पृथक्त्व का अर्थ है- भेद और वितर्क का अर्थ है - तर्क प्रधान चिन्तन यानी तर्क युक्त चिन्तन के माध्यम से श्रुतज्ञान के विविध भेदों का गहराई से चिन्तन करना जैसे द्रव्य-गुण-पर्याय पर चिन्तन करते हुए कभी द्रव्य पर, कभी पर्याय पर, कभी गुण पर - इस प्रकार भेद प्रधान चिन्तन करना पृथक्त्व वितर्क सविचार नामक शुक्ल ध्यान है।
(ii) एकत्व वितर्क सविचार - अभेद प्रधान चिन्तन करना जैसे- किसी एक द्रव्य या उसकी एक पर्याय पर चिन्तन करना एकत्व वितर्क नामक