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64...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
(ii) अप्रशस्त मनोविनय - उपर्युक्त विचारों से ठीक विपरीत सदोष, सक्रिय, क्लेशकारक, छेदकर, भेदकर आदि से मन को भावित करना अप्रशस्त मनोविनय है।
5. वचन विनय- वाणी पर संयम रखना, वचन विनय है। यह विनय भी पूर्ववत दो प्रकार का बताया गया है।11- (i) प्रशस्तवचन-विनय (ii) अप्रशस्तवचन-विनय।
प्रशस्त-अप्रशस्त मन की भाँति ही प्रशस्त-अप्रशस्त वचन समझना चाहिए। जैसे मन सुन्दर और सुखकारी होता है उसी तरह वचन भी मधुर एवं प्रिय होने चाहिए।
6. कायविनय- आचार्य आदि गमनागमन या वाचना आदि देने से परिश्रान्त हो जायें, उस समय उन्हें सिर से पैर तक दबाना अथवा उपयोगपूर्वक शारीरिक प्रवृत्ति करना काय विनय है।
काय-विनय भी दो प्रकार का बतलाया गया है। 12- (i) प्रशस्तकाय-विनय (ii) अप्रशस्तकाय-विनय।
(i) प्रशस्तकाय-विनय - सावधानीपूर्वक चलना, सावधानीपूर्वक बैठना, सावधानीपूर्वक खड़े होना आदि समस्त प्रवृत्तियाँ जागरुकतापूर्वक करना प्रशस्तकाय-विनय है।
(ii) अप्रशस्तकाय-विनय - शरीर-सम्बन्धी समस्त प्रवृत्तियों को अनुपयोगपूर्वक करना, अप्रशस्तकाय-विनय है।
7. लोकोपचार विनय- लोकव्यवहार में प्रचलित विनय औपचारिक कहलाता है। इसके सात प्रकार हैं। 13 - (i) अभ्यासवृत्तिता - सदा आचार्य के समीप रहना (ii) छन्दानुवृत्तिता - आचार्य आदि पूज्यजनों के. अभिप्राय का अनुवर्तन करना (iii) कार्यनिमित्तकरण - विद्या आदि कार्य की सिद्धि के लिए आचार्य या जिनसे विद्या प्राप्त की जा रही है उनके चित्त को प्रसन्न रखना (iv) कृत प्रतिक्रिया - अपने प्रति किये गये उपकारों के लिए कृतज्ञता अनुभव करते हुए सेवा-परिचर्या करना (v) दुःख की गवेषणा - रुग्णता, वृद्धावस्था से पीड़ित गुरुजनों की सार-सम्हाल करना तथा औषधि आदि द्वारा सेवा करना (vi) देशकालज्ञता - देश तथा काल को ध्यान में रखते हुए ऐसा आचरण करना, जिससे अपना मूल लक्ष्य व्याहत न हो (vii) सर्वार्थअनुलोमता - सब