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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...63 सम्मान करना, विधि पूर्वक वन्दन करना, उनके समक्ष करबद्ध नतमस्तक युक्त खड़े रहना, आते हुए गुरुजनों के सामने जाना, जाते हुए गुरुजनों को पहुंचाने जाना आदि शुश्रुषाविनय है।
___ (ii) अनाशातना विनय - देव, गुरु, धर्म की अवहेलना हो वैसा व्यवहार नहीं करना अनाशातनाविनय है। इस विनय के पैंतालीस प्रकार हैं -
1. अरिहन्तों की आशातना नहीं करना 2. तीर्थङ्करों द्वारा प्ररूपित धर्म की आशातना नहीं करना 3. आचार्यों की आशातना नहीं करना 4. उपाध्यायों की आशातना नहीं करना 5. स्थविरों- ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध, वयोवृद्ध श्रमणों की आशातना नहीं करना 6. कुल की आशातना नहीं करना 7. गण की आशातना नहीं करना 8. संघ की आशातना नहीं करना 9. क्रियावान् की आशातना नहीं करना 10. सांयोगिक- जिसके साथ वन्दन, भोजन आदि पारस्परिक व्यवहार हो उस गच्छ के श्रमण या श्रमणी की आशातना नहीं करना। 11-15. मति आदि पांच ज्ञानों की आशातना नहीं करना अनाशातना विनय है।
अर्हत अनाशातना के तीन प्रकार हैं-108 1. भक्ति करना 2. बहमान करना 3. गुणोत्कीर्तन करना। इसी प्रकार प्रत्येक के साथ तीन का गुणन करने पर (15x3) अनाशातना विनय के पैंतालीस भेद होते हैं।
3. चारित्र विनय- चारित्रनिष्ठ गुरुजनों या पूज्यजनों का बहुमान करना चारित्रविनय है। चारित्र का विनय पांच प्रकार से किया जा सकता है अत: इस विनय के पांच भेद हैं-109 (i) सामायिकचारित्र-विनय (ii) छेदोपस्थापनीयचारित्रविनय (iii) परिहारविशुद्धिचारित्र-विनय (iv) सूक्ष्मसम्परायचारित्र-विनय (v) यथाख्यातचारित्र-विनय।
उक्त पांच प्रकार के चारित्रधारी आत्माओं के प्रति आदर भाव आदि रखना चारित्र-विनय है।
4. मन विनय- मन पर अनुशासन रखना मनोविनय है। यह विनय दो प्रकार का कहा गया है-110 (i) प्रशस्त मनोविनय (ii) अप्रशस्त मनोविनय।
(i) प्रशस्त मनोविनय- मनस् केन्द्र को पवित्र, निर्दोष, अक्रिय (दुष्ट क्रियारहित), अक्लेशकारक, अकटुक (मधुर), अनिष्ठुर (कोमल), अपरुष (स्निग्ध), अछेदकर, अभेदकर, अभूतोपघातिक (अहिंसक) विचारों से भावित रखना प्रशस्त मनोविनय है।