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________________ 42...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक यही है कि साधु हो या गृहस्थ- यदि मन में तप की भावना हो और आहार संज्ञा पर विजय पाना चाहे तो भिक्षाचारी तप का सेवन किया जा सकता है। __लाभ – भिक्षाचर्या मुनि जीवन का अलौकिक तप है। उपर्युक्त गोचरी, एषणा एवं अभिग्रह के भेदों द्वारा इसका सम्यक परिपालन किया जाता है। निर्दोष भिक्षा प्राप्त करने वाला मनि बह निर्जरा का भागी होता है और ऐसे भिक्षुक को आहार आदि का दान करने से भी महान पुण्य का सर्जन होता है। भगवतीसूत्र में शुद्ध दान का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि आत्मा तीन कारणों से दीर्घायुष्य प्राप्त करता है:___1. अहिंसा की साधना से 2. सत्य भाषण से 3. श्रमण को शुद्ध-निर्दोष आहार-पानी देने से। इस तप के फलस्वरूप रसवृत्ति का निरोध होता है, भोजन का संकोच होता है, मनोनिग्रह का अभ्यास बढ़ता है, दुःसह स्थितियों में रहने की आदत बनती है, समत्व धर्म का आस्वाद प्राप्त होता है। इस तरह भिक्षाचरी तप की महान फलश्रुतियाँ हैं। __यहाँ भिक्षाचर्या तप का सामान्य वर्णन ही प्रस्तुत किया गया है यद्यपि मुनि की भिक्षा के सम्बन्ध में जैन सूत्रों में स्थान-स्थान पर विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। आचारांग (2/1), प्रश्नव्याकरण (संवरद्वार 1/15), भगवतीसूत्र (7/1), उत्तराध्ययन (26), दशवैकालिक (5) तथा निशीथ आदि सूत्रों में भिक्षाचरी के विधि-निषेधों का बड़ा ही सूक्ष्म वर्णन प्राप्त होता है। आचारांगसूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक का पाँचवां अध्ययन तो विशेष रूप से भिक्षा-विधि का ही निरूपण करते हैं। इस कारण इनका नाम भी 'पिण्डषणा अध्ययन प्रसिद्ध हो गया है। 4. रस परित्याग तप ___ यह बाह्य तप का चौथा प्रकार है। रस का अर्थ होता है- प्रीति बढ़ाने वाला। जिसके कारण भोजन में, वस्तु में ममत्त्व उत्पन्न होता हो उसे रस कहते हैं। यहाँ रस परित्याग का मुख्य अर्थ है - स्वादिष्ट भोजन दूध, दही, घी, मिष्ठान्न आदि रसप्रद वस्तुओं का परित्याग करना। सामान्यतया जो आहार के प्रति लोलुपता को पैदा करता है, आसक्ति भावों को अभिवृद्ध करता है ऐसे खाद्य पदार्थों का आंशिक या सर्वथा त्याग करना रस परित्याग तप है।
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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