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________________ तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...43 भोजन के छह रस माने गये हैं - 1. कड़वा 2. मीठा 3. खट्टा 4. तीखा 5. कसैला 6. नमकीन। इन रसों के संयोग से भोजन मधुर, स्वादिष्ट और जीभ को अच्छा लगने वाला बनता है। भोजन सरस हो तो व्यक्ति भूख से अधिक भी खा लेता है। इन षड्रसों के अतिरिक्त कुछ रस ऐसे भी हैं जो भोजन को स्वादिष्ट बनाने के साथ-साथ गरिष्ठ व पौष्टिक भी बना देते हैं। शास्त्रों में इन रसों को 'विकृति' (विगय) कहा गया है। प्राचीन ग्रन्थों में विगय के दो रूप बतलाये गये हैं - (1) भक्ष्य विगय और (2) अभक्ष्य विगय। __ भक्ष्य विकृति छ: प्रकार की होती है - दूध, दही, घी, तेल, गुड़ व कड़ाही में तली हुई वस्तुएँ। अभक्ष्य विगय चार हैं। इन्हें महाविगय भी कहा जाता है - मद्य, मांस, मधु और मक्खन। ये सर्वथा वर्ण्य हैं। ___ यहाँ यह मुख्य रूप से स्मरणीय है कि विगय पदार्थ स्वभावत: विकार उत्पन्न करते हैं, किन्तु भक्ष्य विगय के सम्बन्ध में यह भी है कि वह शरीर को बलिष्ठ एवं कष्ट सहिष्णु बनाये रखने के लिए भी सामान्य जीवन में उपयोगी होती है। वस्तुत: घी, दही, मक्खन आदि स्वयं प्राकृतिक रस नहीं हैं किन्तु विकृतिजन्य ही हैं। जैसे गाय के रस आदि की विकृति दूध है, दही दूध की विकृति है, घृत दही की विकृति है अत: भक्ष्य विगय विकृति रूप ही है। यदि विकृतिकारक पदार्थों का अति सेवन किया जाये तो साधक संयम से च्युत होकर विगति (दुर्गति) को प्राप्त कर लेता है।51 ____ उपर्युक्त वर्णन से प्रश्न उठता है कि जैनाचार्यों ने रसवर्द्धक भोजन का सर्वथा निषेध किया है अथवा अमुक स्थितियों में ? इसका जवाब है कि शरीर के लिए पौष्टिक (रसजन्य) आहार को सर्वथा वर्ण्य नहीं माना गया है, क्योंकि अत्यन्त रूखा व नीरस आहार देह को निर्बल एवं रुग्ण बना देता है। जैसे दीपक को तेल एवं बत्ती की जरूरत होती है वैसे ही शरीर को शक्तिवर्धक आहार की अपेक्षा रहती है। कहा गया है कि पुष्ट खुराक बिना नहीं बनता तेज दिमाग । तेल और बत्ती बिना कैसे जले चिराग ? __ भगवतीसूत्र कहता है कि सतत रूखा-सूखा नीरस आहार करने से जमाली जैसा हृष्ट-पुष्ट साधक भी रुग्ण हो गया। अत: शास्त्रों में विगय का सर्वथा निषेध
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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