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________________ तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...41 18. पृष्ट लाभ – भिक्षो ! आपको क्या दें, ऐसे पूछकर दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना। 19. अपृष्ट लाभ - कुछ भी पूछे बिना दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना। 20. भिक्षा लाभ – भिक्षा के सदृश- भिक्षा मांगकर लाये हुए जैसा तुच्छ आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना अथवा दाता जो भिक्षा में मांगकर लाया हो उस भोजन में से आहार लेने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना। 21. अभिक्षा लाभ - भिक्षा लाभ से विपरीत आहार लेने की प्रतिज्ञा करना। 22. अन्न ग्लायक - बासी आहार लेने की प्रतिज्ञा रखना। ___23. उपनिहित - भोजन करते हुए गृहस्थ के निकट रखे हुए आहार में से भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा करना। 24. परिमित पिण्डपातिक - परिमित या अल्प आहार लेने की प्रतिज्ञा करना। ___25. शुद्धैषणिक - शंका आदि दोष से वर्जित अथवा व्यञ्जन आदि से रहित शुद्ध आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना। 26. संख्यादत्तिक - पात्र में आहार-क्षेपण की सांख्यिक मर्यादा के अनुरूप भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा करना अथवा कड़छी, कटोरी आदि द्वारा पात्र में डाली जाती भिक्षा की अविच्छिन्न धारा की मर्यादा के अनुसार भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना। उपर्युक्त वर्णन के आधार पर यहाँ प्रश्न होता है कि भिक्षाचरी तप तो मुख्यत: साधु को लक्ष्य करके ही बताया गया है फिर गृहस्थ इस तप की आराधना कैसे कर सकता है? इसका सटीक जवाब यह है कि विवेच्य अभिग्रहों में कुछ अभिग्रह ऐसे हैं जिन्हें साधु की तरह गृहस्थ भी कर सकता है। साधु गृहस्थ के घर भिक्षा के लिए जाता है जबकि गृहस्थ अपने घर में बैठा हुआ भी इनकी साधना कर सकता है। जैसे- संख्यादत्तिक नाम का अभिग्रह है उसमें संकल्प करे कि “थाली में एक बार जितना परोस दिया जायेगा उतना ही भोजन करूँगा"। इसी तरह अपृष्टलाभिक अभिग्रह - इसमें विचार करे कि “जो वस्तु मुझे बिना पूछे परोस देंगे या पूछकर परोसेंगे वही खाऊंगा"। इसका अभिप्राय
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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