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34... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
प्रस्तुत आगम में दो श्रुतस्कन्ध एवं बीस अध्ययन हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनों में दुष्कर्मों का फल दिखाने के लिए क्रमशः मृगापुत्र, उज्झितकुमार, अभग्गसेन, शकट, बृहस्पतिदत्त, नंदीवर्धन, उदुम्बरदत्त, शौर्यदत्त, देवदत्त और अंजूश्री के कथानक वर्णित हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सुकृतों का फल बताने हेतु क्रमशः सुबाहु, भद्रनन्दी, सुजातकुमार, सुवासकुमार, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दी, महाचन्द्र और वरदत्तकुमार की कथाएँ वर्णित है। इन व्यक्तियों ने पूर्वभव में सुपात्रदान आदि शुभ कार्य किए, जिनके परिणामस्वरूप इन्हें अपार सम्पदा प्राप्त हुई।
कर्मसिद्धान्त की अपेक्षा से यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी है। इसमें इस सिद्धान्त का सुन्दर विवेचन किया गया है। पुनश्च इसमें दो श्रुतस्कन्ध, बीस अध्ययन, बीस उद्देशक, बीस समुद्देशक काल हैं एवं संख्येय हजार पद हैं। वर्तमान संस्करण में इसकी श्लोक संख्या बारह सौ पचास है। ____ 12. दृष्टिवादसूत्र- दृष्टिवाद बारहवाँ अंग आगम है। इसमें संसार के सभी दर्शनों एवं नयों का निरूपण किया गया है अथवा जो सभी नयों की दृष्टि से कथन करने वाला तथा जिसमें समस्त भावों की प्ररूपणा हो वह सूत्र दृष्टिवाद है। इसके अपर नाम दृष्टिपात एवं भूतवाद है। यह बारहवाँ अंग आचार्य भद्रबाहु के निर्वाण के बाद से विलुप्त होने लग गया था तथा वीर निर्वाण की दसवीं शती के अन्त तक पूर्णतया विनष्ट हो गया। समवायांग एवं नन्दीसूत्र में इसके पाँच विभाग है- 1. परिकर्म 2. सूत्र 3. पूर्वगत 4. अनुयोग और 5. चूलिका।109
विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि दृष्टिवाद में सभी पदार्थों का वर्णन है।110 इससे सिद्ध होता है कि दृष्टिवाद में समस्त दर्शनों का समावेश था। बारह उपांग सूत्र
जैन आगम साहित्य मूलत: दो भागों में विभक्त है- 1. अंगप्रविष्ट और 2. अंगबाह्य। अंग की भाँति उपांगों की संख्या भी बारह ही है। प्राचीन साहित्य में उपांग की गणना अंगबाह्य ग्रन्थों में की गई है। नन्दीसूत्र में अंगबाह्य शब्द का ही उल्लेख है। सबसे पहले तेरहवीं शती के ग्रन्थों में उपांग शब्द प्राप्त होता है। स्वरूपत: उपांग शब्द अंग से सम्बन्धित प्रतीत होता है किन्त विषय वर्णन आदि की दृष्टि से उपांगों की अंगों के साथ कोई संगति नहीं बैठती है।