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________________ 24... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण पूर्णतः प्रामाणिक है। दूसरा तथ्य यह है कि गणधरकृत द्वादशांगी का ही मूलागमों में समावेश है उन्हें ही गणिपिटक कहा गया है, शेष आगम स्थविरकृत हैं। वस्तुतः जो रचनाएँ त्रिपदी को आधार बनाकर गणधरों द्वारा अल्प अवधि में की गई है वे अंगप्रविष्ट, द्वादशांगी एवं गणिपिटक कहलाती हैं। यहाँ यह जानना भी आवश्यक है कि गणधर केवल अंगप्रविष्ट आगमों को ही सूत्रबद्ध नहीं करते, वे अन्य ग्रन्थ भी रचते हैं जैसे - आवश्यक सूत्र । प्रकीर्णक ग्रन्थ भी भगवान की वाणी का विस्तार करते हुए उनके शिष्यों द्वारा रचे जाते हैं। गणिपिटक का मुख्य अर्थ चौदह पूर्व द्वादशांगी है परन्तु चौदह पूर्व में दुनिया का समस्त श्रुतज्ञान समाहित हो जाता है। अतः अनंग प्रविष्ट (अंग बाह्य) आदि आगम साहित्य का मूल भी चौदह पूर्व होने से और चौदह पूर्व गणधरों की रचना होने से उनके भी तत्त्वतः कारक गणधर ही कहे जा सकते हैं। उसका भी मूल तीर्थंकर की अर्थ व्याख्या होने से यह आगमिक समग्र साहित्य आप्त प्रमाण है। जो रचनाएँ त्रिपदी के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से निर्मित हुई हैं उनके रचयिता श्रुतधर या पूर्वाचार्य कहलाते हैं। 95 आगमों की संख्या एवं नवीन वर्गीकरण जैन अवधारणा में आगम सम्बन्धी संख्या को लेकर अनेक मतभेद हैं। मूलतः अंग-साहित्य की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर" सभी एकमत हैं। सभी परम्पराएँ अंगों की संख्या बारह मानती है। परन्तु अंग बाह्य की संख्या में मत वैभिन्य है। श्वेताम्बरवर्ती स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा कुल बत्तीस आगम मानते हैं वहीं श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में पैंतालीस आगमों की मान्यता है, इनमें भी कुछेक गच्छ चौरासी आगम भी मानते हैं। दिगम्बर परम्परा आगम के अस्तित्व को स्वीकार तो करती है, परन्तु उनकी मान्यतानुसार सभी आगम विच्छिन्न हो गये हैं। यहाँ आगम संख्या के सम्बन्ध में यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि नन्दीसूत्र में जिन आगम ग्रन्थों का उल्लेख है, उनमें से आज कालिक और उत्कालिक वर्ग के अनेक आगम ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। जहाँ आवश्यक वर्ग के अन्तर्गत छह स्वतन्त्र आगमों का उल्लेख हैं, वहाँ वर्तमान में उसे एक ही आगम माना जाता है। इस प्रकार वर्तमान में आगमों की संख्या 45 तक सीमित हो जाती है । सम्प्रति में इस संख्या के आधार पर आगमग्रन्थों को अंग, उपांग, छेद, मूल, चूलिका एवं प्रकीर्णक सूत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इस नये
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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