SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आगम : एक परिचय ...23 उत्तराध्ययनसूत्र की बृहद् टीका के अनुसार उत्तराध्ययन का परीषह नामक दूसरा अध्ययन नौवें पूर्व के 17वें प्राभृत से उद्धृत है। आगमों की भाषा जैनागमों की मूल भाषा अर्धमागधी है।86 अर्धमागधी प्राकृत भाषा का ही एक रूप है। देवता इसी भाषा में बोलते हैं अत: यह देववाणी भी मानी गई है। निशीथचूर्णि के अनुसार यह भाषा मगध के अर्ध भाग में बोली जाने के कारण अर्धमागधी कही जाती है।87 एक अन्य मत के अनुसार इस भाषा में अठारह देशी भाषाओं का सम्मिश्रण है। इस प्रकार मागधी एवं देशज शब्दों के मिश्रण के कारण भी अर्धमागधी कहलाती है। आगम साहित्य में इससे सम्बन्धित उल्लेख भी मिलते हैं। जैसे भगवतीसूत्र में गौतम स्वामी द्वारा प्रश्न किया गया कि देव किस भाषा में बोलते हैं? तब भगवान महावीर ने उत्तर दिया-'देव अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं तथा सभी भाषाओं में यह भाषा श्रेष्ठ और विशिष्ट है।'88 समवायांग89 एवं औपपातिकसूत्र के अनुसार तीर्थंकर अर्धमागधी भाषा में ही उपदेश देते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में इस भाषा को बोलने वाले को भाषार्य कहा है।91 नन्दी टीका में कहा गया है कि सारा प्रवचन (आगम) अर्द्धमागधी भाषा में निबद्ध है, क्योंकि तीर्थंकर अर्धमागधी भाषा में धर्म देशना देते हैं।92 इस प्रकार आगम ग्रन्थों की मुख्य भाषा अर्धमागधी ही है। सम्भवतः समग्र आगम साहित्य का रचनाकाल भिन्न-भिन्न होने से उन पर शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि भाषाओं का यत्किंचित प्रभाव अवश्य ही देखा जाता हो, फिर भी आचारांग आदि प्राचीनतम आगमों की भाषा अर्धमागधी ही है। आगमों के रचयिता कौन? परमार्थतः तीर्थंकर परमात्मा ही आगम सूत्रों के रचयिता हैं, क्योंकि अरिहन्त परमात्मा के वचन के आधार पर आगम रचना होती है। गणधर अर्थ रूप श्रुत का संकलन कर इसे सूत्र रूप में गूंथते हैं।93 गणधरों में सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि होती है, इसी कारण वे आचारांग आदि के अर्थ को सूत्रबद्ध करने में समर्थ होते हैं।94 इस प्रकार आगम सत्र गणधरों द्वारा सत्रबद्ध किये जाने के कारण प्रामाणिक है। क्योंकि जैसे अरिहंत देव अर्थ के वाचक होने से पूज्य हैं वैसे गणधर देव सूत्र के वाचक होने से पूज्य हैं अत: गणधरों के वचन भी
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy