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जैन आगम : एक परिचय ...21
मूलागमों में 'अंग' शब्द का ही उल्लेख मिलता है। नन्दीसूत्र में अंग के सिवाय कालिक, उत्कालिक आदि का विभाग है, किन्तु उपांग आदि सूत्रों का विभागीकरण नहीं है। यहाँ 'उपांग' के अर्थ में अंगबाह्य शब्द का उल्लेख है। सर्वप्रथम तत्त्वार्थभाष्य में उपांग शब्द का प्रयोग देखा जाता है।72 तत्पश्चात सुबोधा सामाचारी,73 विधिमार्गप्रपा,74 आचारदिनकर75 आदि वैधानिक ग्रन्थों में उपांग शब्द पढ़ने को मिलता है। पं. बेचरदासजी के अभिमतानुसार चूर्णि साहित्य में भी उपांग शब्द का प्रयोग किया गया है। मूलत: अंग साहित्य के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए उपांगों की रचना हुई है और आगमयुग में यह श्रुत-साहित्य अंगबाह्य के नाम से प्रचलित रहा है।
मूलसूत्रों के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों की अलग-अलग धारणाएँ हैं। उपाध्याय समयसुन्दरजी ने दशवैकालिक, ओघनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति एवं उत्तराध्ययन को मूलसूत्र माना है। डॉ. सारपेन्टियर, डॉ. विन्टरनित्ज और डॉ. ग्यारीनो ने उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक एवं पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र माना है।76 डॉ. शूबिंग ने उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक, पिंडनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति को मूलसूत्र माना है।77 स्थानकवासी एवं तेरापंथी सम्प्रदाय उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी एवं अनुयोगद्वार को मूलसूत्र मानते हैं।78 विद्वानों के अनुसार लगभग विक्रम की 14वीं शती के पहले किसी आगम का मूलसूत्र के रूप में नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता है किन्तु यह विधान परीक्षणीय है। क्योंकि जब से 45 आगमों की गिनती शुरू हुई है तभी से मूलसूत्र की भी गिनती प्राय: की गई है।
छेदसूत्रों की संख्या एवं नामों को लेकर भी विभिन्न मत हैंसामाचारीशतक में दशाश्रुत, व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ, महानिशीथ एवं जीतकल्प को छेदसूत्र कहा गया है।79 नन्दीसूत्र में जीतकल्प को छोड़कर शेष पाँचों का उल्लेख है, किन्तु इनकी गिनती छेदसूत्र में न करके कालिक सूत्र के अन्तर्गत की गई है।80 वर्तमान स्थानकवासी परम्परा में दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प एवं निशीथ ये चार ही छेदसूत्र माने जाते हैं। यदि ऐतिहासिक-क्रम की अपेक्षा कहें तो छेदसूत्रों का प्रथम उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में हआ है।81 इसके अनन्तर विशेषावश्यक भाष्य, निशीथ भाष्य आदि में भी छेदसूत्रों का उल्लेख है। उक्त वर्णन से इतना स्पष्ट होता है कि छेदसूत्र मूलसूत्र से पहले अस्तित्व में आये हैं।