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जैन आगम : एक परिचय ...19
1. चरणकरणानुयोग- व्रत, समिति, प्रतिलेखना, भावना, तप आदि
आचार प्रधान विषयों का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थ चरण-करणानुयोग
कहलाते हैं जैसे- कालिकश्रुत, महाकल्प, छेद सूत्र आदि। 2. धर्मकथानुयोग- धार्मिक व वैराग्यप्रद कथाओं का आख्यान करने वाले
ग्रन्थ धर्मकथानुयोग कहलाते हैं जैसे- ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि। 3. गणितानुयोग- सूर्यादि ग्रहों के माप-संख्या-गति आदि का वर्णन करने
वाले, तिथि-नक्षत्र-योग आदि का निरूपण करने वाले और द्वीप-समुद्र एवं क्षेत्रादि की लम्बाई-चौड़ाई बतलाने वाले ग्रन्थ गणितानुयोग कहलाते हैं जैसे- सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि। 4. द्रव्यानुयोग- द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्त्व, कर्म, बंध आदि विषयों का
प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थ द्रव्यानुयोग कहलाते हैं जैसे- दृष्टिवाद आदि।
उक्त वर्गीकरण विषय सादृश्य की दृष्टि से किया गया है। विशेषावश्यक भाष्य में व्याख्या क्रम की दृष्टि से भी आगमों के दो रूप मिलते हैं, जो अनुयोग के रूप में विभक्त है तथा पहला क्रम आर्यरक्षित से पूर्ववर्ती है1. अपृथक्त्वानुयोग67 और 2. पृथक्त्वानुयोग।68 ___1. अपृथक्त्वानुयोग- अपृथक्त्व का अर्थ है- एकीभाव-अविभाग। जहाँ प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग एवं द्रव्यानुयोग- इन चारों अनुयोगों से की जाती है वह अपृथक्त्व-अनुयोग कहलाता है। यह व्याख्या पद्धति अत्यधिक क्लिष्ट और स्मृति-सापेक्ष होती है।
2. पृथक्त्वानुयोग- पृथक्त्व का अर्थ है- विभाग, खण्ड। जहाँ प्रत्येक सूत्र की व्याख्या एक-एक अनुयोग से की जाती है वह पृथक्त्व-अनुयोग कहलाता है। पृथक्त्व-अनुयोग का सूत्रपात आर्यरक्षित ने किया है। आवश्यक टीका में वर्णन आता है कि आर्यरक्षित के चार शिष्य थे- 1. दुर्बलिकापुष्यमित्र 2. फल्गुरक्षित 3. विन्ध्य और 4. गोष्ठामाहिल। इनमें विन्ध्य प्रबल मेधावी था। उसने आर्यरक्षित से अनुनय किया कि सहपाठ से अत्यधिक विलम्ब होता है अत: मुझे शीघ्र पाठ मिल सके, ऐसा प्रबन्ध चाहता हूँ। आचार्य के आदेश से विन्ध्य को वाचना देने का कार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने अपने अधिकार में लिया। वाचना-क्रम चलता रहा। कुछ समय के बाद दुर्बलिकापुष्पमित्र यथावस्थित स्वाध्याय न कर पाने के कारण नौवें पूर्व को विस्मृत करने लगे, आर्यरक्षित ने